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संपादकीय

22-Oct-2023 3:05:12 pm

‘आंख के बदले आंख’ सिद्धांत कितना प्रासंगिक

‘आंख के बदले आंख’ सिद्धांत कितना प्रासंगिक

‘आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत’, यह पंक्ति बेबीलोन के राजा हाम्बुराबी (1790 ई. पूर्व) के कानून का एक अंश है। एक विशाल पत्थर के स्लैब पर अंकित हाम्बुराबी की कानून संहिता को सन् 1901 में ईरान के ‘सुसा’ शहर में खोजा गया था तथा मौजूदा वक्त में यह स्टेल पेरिस के ‘लौवर’ संग्रहालय में संरक्षित है। प्रखर राष्ट्रवाद के लिए प्रसिद्ध इजरायल की सेना अपने दुश्मनों के साथ आंख के बदले आंख के सिद्धांत पर काम करती है। लेकिन ‘आंख के बदले आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी’, यह कथन ‘महात्मा गांधी’ का है। महात्मा बुद्ध, महावीर, गुरु नानक देव जैसे महापुरुषों के आध्यात्मिक ज्ञान की विरासत, अहिंसा के मंत्र, सत्य के सिद्धांत सदियों से भारतीय सभ्यता का हिस्सा रहे हैं। मगर प्रश्न यह है कि जब पड़ोस में आतंक का तर्जुमान पाकिस्तान हो, दूसरी तरफ शातिर चीन तथा अन्य मुल्क वक्त की नजाकत को देखकर रंग बदलने में माहिर हों तथा विदेशों में शरण लेकर भारत को खंडित करने का ख्वाब देख रहे चरमपंथी संगठन मौजूद हों, तो शांति का मसीहा बनकर नैतिकता का पाठ व अहिंसा के सिद्धांतों की दुहाई देना कितना प्रासंगिक है।

रूस-यूक्रेन की जंग व इजरायल के साथ हमास जैसे चरमपंथी संगठन के सशस्त्र संघर्ष ने विश्व को कई सबक सिखा दिए हैं। गत सात अक्तूबर 2023 को जब इजरायल की आवाम अपना ‘योम किप्पुर’ नामक पर्व मना रही थी, तब फिलिस्तीन के गाजापट्टी से संचालित होने वाले चरमपंथी संगठन ‘हमास’ ने इजरायल पर खौफनाक हमले को अंजाम देकर पूरी दुनिया को चौंका दिया। हमास ने इजरायल पर हमला करके पचास वर्ष पूर्व की उस तारीख को ताजा कर दिया जब मिस्र व सीरिया की सेनाओं ने मिलकर छह अक्तूबर 1973 को इजरायल पर योम किम्पूर पर्व के अवसर पर हमला किया था। इजरायल के वर्तमान प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू उस योम किप्पुर जंग में इजरायली सेना का हिस्सा बनकर लड़े थे। इजरायली सेना के शदीद पलटवार के बाद 26 अक्तूबर 1973 को सीजफायर का ऐलान हुआ। युद्ध के बाद मिस्र व इजरायल में मुजाकरात का दौर शुरू हुआ। एक तवील अर्से के बाद पूर्व सैन्य अधिकारी रहे मिस्र के राष्ट्रपति मुहम्मद अनवर अल सादत ने सन् 1977 में इजरायल का दौर किया। सन् 1978 में मु. अनवर अल सादत तथा इजरायली प्रधानमंत्री ‘मेनाकेम बेगिन’ के बीच मिस्र-इजरायल नामक शांति संधि हुई। लेकिन कट्टरपंथ की उल्फत में डूबे कई मुल्कों को वो शांति संधि नागवार गुजरी। आखिर छह अक्तूबर 1981 के दिन मिस्र की राजधानी काहिरा में सैन्य परेड के दौरान आतंकियों ने राष्ट्रपति मो. अनवर अल सादत को कत्ल कर दिया था। भावार्थ यह है कि मैदाने जंग में दुश्मन को धूल चटाकर हमेशा फातिम योद्धा का किरदार निभाने वाले मुल्क इजरायल के साथ युद्ध तथा शांति संधि दोनों इंतसार पैदा करते हैं। किसी भी देश पर अचानक हमला होने की स्थिति में वहां की खुफिया एजेंसियों की चूक पर सवाल उठते हैं। देश की सुरक्षा में खुफिया विभाग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
 
इजरायल देश की आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा खुफिया एजेंसी ‘शिन बेट’ तथा देश के बाहर की कमान सन् 1949 में स्थापित ‘मोसाद’ संभालती है। जोखिम भरे मिशनों को खुफिया तरीके से अंजाम देने में माहिर मोसाद दुनिया की सर्वश्रेष्ठ खुफिया एजेंसियों में शुमार करती है। मोसाद के खुफिया सैन्य मिशनों का एक शानदार इतिहास रहा है। 27 जून 1976 को इजरायल की राजधानी तेल अवीव में फ्रांस की ऐयरबस का कुछ आतंकियों ने अपहरण करके उसे युगांडा के एंतेबे हवाई अड्डे पर उतार दिया था, जिसमें ज्यादातर इजरायली नागरिक सवार थे। चार जून 1976 को इजरायल के ‘एलिट ग्रुप’ के कमांडो ने आपरेशन ‘थंडरबोल्ट’ को अंजाम देकर एंतेबे हवाई अड्डे पर सात आतंकियों सहित युगांडा के पचास सैनिकों को भी हलाक करके उस जहाज को रिहा करा लिया था। उस कमांडो मिशन में इजरायल के वर्तमान प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बड़े भाई कर्नल ‘जोनाथन नेतन्याहु’ शहीद हो गए थे। गौर करने वाली बात है कि इजरायल का सियासी नेतृत्व करने वाले ज्यादातर सियासतदानों का सैन्य क्षेत्र का जमीनी अनुभव रहा है। लिहाजा इजरायल से प्रत्यक्ष युद्ध की हिमाकत कोई भी देश नहीं करता। इसीलिए आतंकी संगठनों की सरपरस्ती हो रही है। 14 मई 1948 को इजरायल ने खुद को एक आजाद मुल्क घोषित कर दिया था। वजूद में आने के एक दिन बाद ही अरब देशों ने इजरायल पर हमला बोल दिया था। तब यूएनओ ने मध्यस्थता करके युद्ध को शांत कर दिया था। दुश्मन देशों से घिरे इजरायल की आवाम पर अत्याचारों की एक लम्बी दास्तान है। मगर जिस प्रकार इजरायल ने खुद को हर क्षेत्र में सक्षम किया है वो एक मिसाल है। हमास के हमले से भारत की सियासी हरारत भी बढ़ चुकी है। मजहब के कई रहनुमां हैवानियत को शर्मसार करने वाले हमास के आतंकियों को इंकलाबी चेहरे बता रहे हैं।
 
 
मजलूमों को मारने का हश्र क्या होता है, हमास की इस हरकत का अंजाम फिलिस्तीन की आवाम भुगत रही है। शहर शमशान में तब्दील हो रहे हैं। अलबत्ता मजहबी नारे लगाकर बेगुनाह लोगों का कत्ल करने वाले आतंकियों को इजरायली सेना जहन्नुम की परवाज पर भेजकर ही दम लेगी। स्मरण रहे प्रतिशोध भरा इंतकाम जुल्म से भी बद्दतर साबित होता है। लाशें रोती नहीं, मगर उन्हें सुपुर्दे खाक करने वाले चीत्कार के साथ मातम मनाते हैं। नया शहर कितना भी आबाद हो, परंतु पीछे छूटने वाले आशियाने बेचैन करते हैं। इसलिए यूएनओ को युद्ध के कहर से शरणार्थी बन रहे लोगों का दर्द समझना होगा। बहरहाल जब बात राष्ट्र के स्वाभिमान की हो तो बेगुनाहों का रक्त बहाने वाली मानसिकता पर ‘आंख के बदले आंख व दांत के बदले दांत’ के सिद्धांत को अपनाना पड़ता है, मगर आंख के बदले आंख विश्व को अंधा बना देगी, गांधी जी के इस कथन पर भी विचार होना चाहिए। फिलिस्तीन-इजरायल से भारत के बेहतर रिश्ते हैं। अत: वैश्विक शांति के लिए दहशतगर्दी की किसी भी सूरत में हिमायत नहीं होनी चाहिए।

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