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संपादकीय

  • दलित व्यवसाय मालिकों की आय बढ़ाने में सामाजिक पूंजी की भूमिका पर संपादकीय

    16-Aug-2024

    भारत में व्यापार करना हर किसी के लिए आसान नहीं है। पीएलओएस वन नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि सामाजिक पूंजी - एक पैमाना जो यह बताता है कि कोई व्यक्ति कितने और कितने प्रभावशाली लोगों को जानता है - जिसे व्यापक रूप से व्यापार सहित कई क्षेत्रों में लाभकारी माना जाता है, दलित व्यवसाय मालिकों के कलंक को दूर करने और उनकी आय बढ़ाने में बहुत कम मदद करती है। वास्तव में, दलित व्यवसाय मालिकों और अन्य लोगों के बीच 15%-18% का आय अंतर है जिसे केवल जाति के कारण ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो शहरी या ग्रामीण स्थान, शिक्षा, पारिवारिक पृष्ठभूमि या भूमि स्वामित्व जैसे अन्य निर्धारकों को दरकिनार कर देता है। यह भारत के मुक्त बाजार में निहित योग्यता और जाति अज्ञेयवाद की धारणा को दूर करता है। हालांकि यह सच है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने से कुछ दलित उद्यमियों को अपने पारंपरिक, जाति-निर्धारित करियर को पीछे छोड़ने और बड़ा बनने में सक्षम बनाया गया, लेकिन अधिकांश को संस्थागत और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है जो व्यवसाय स्वामित्व के उस हिस्से में तब्दील हो जाता है जो उनकी आबादी के अनुपात में नहीं है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, 2011 की जनगणना के अनुसार देश की आबादी में लगभग 17% हिस्सा होने के बावजूद दलितों के पास भारत में केवल 12.5% ​​सूक्ष्म उद्यम, 5.5% लघु उद्यम और 0.01% से भी कम मध्यम उद्यम हैं। दलित समुदाय की महिला उद्यमी – एक अनिश्चित संख्या – दोगुनी वंचित हैं। रिपोर्ट्स बताती हैं कि उद्यमिता में दलितों के हाशिए पर जाने में योगदान देने वाला एक कारक पूर्वाग्रही दृष्टिकोण है जो समुदाय को अविश्वसनीय मानता है और व्यवसायिक कौशल और योग्यता के बजाय केवल सरकारी लाभों के कारण जीवन में सफल होता है। आर्थिक उदारीकरण के तीन दशक बाद भी, भारत के व्यापार और वाणिज्य स्थल जाति पहचान के खिंचाव और दबाव के अधीन हैं। राज्य का समर्थन - केंद्र सरकार ने 2014-15 में अनुसूचित जातियों के लिए एक विशेष उद्यम पूंजी कोष स्थापित किया था, जिसका उपयोग अनुसूचित जाति के उद्यमियों की कम से कम 51% हिस्सेदारी वाली लगभग 120 कंपनियों द्वारा किया गया था - कुछ हद तक सामाजिक कलंक को दूर करने में मदद कर सकता था। लेकिन इस तरह के लाभ अक्सर जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण इच्छित लाभार्थियों तक नहीं पहुँच पाते हैं; स्टैंड अप इंडिया पहल का अप्रयुक्त कोष, जो अनुसूचित जातियों, जनजातियों और महिलाओं के लिए एक ऋण योजना है, इसका एक उदाहरण है। व्यापार करने में आसानी की रेटिंग में सामाजिक भेद्यता सूचकांक को शामिल करने पर विचार किया जाना चाहिए। दलित उद्यमियों की क्षमता को उजागर करने की दीर्घकालिक रणनीतियाँ भारतीय समाज में अंतर्निहित पदानुक्रम को समाप्त करने के उद्देश्य से हस्तक्षेप किए बिना सफल नहीं होंगी। 


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  • चढ़ती कीमतों को नीचे लाने के उपाय

    17-Jul-2024

    पिछले महीने यूरोपीय संघ ने यह कहते हुए ऋण दरों में कटौती की थी कि उसने महंगाई को काफी हद तक काबू में कर लिया है। ऐसा करने वाली वह दूसरी प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्था थी, क्योंकि इससे पहले कनाडा ने भी दरों में कमी करने का एलान किया था। अब अमेरिका ने भी लगातार तीन महीने तक महंगाई कम होने के कारण यह संकेत दिया है कि जल्द ही फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में कटौती कर सकता है। जाहिर है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक देश अपने यहां दरों में कमी कर रहे हैं, जिससे लगता है कि महंगाई को नियंत्रित करने में वे सफल साबित हो रहे हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि कोरोना महामारी, यूक्रेन संकट और फिर इजरायल-हमास जंग की वजह से वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर जो नकारात्मक असर पड़ा था, उससे पार पाने में उन्हें सफलता मिलने लगी है। मगर भारत में हालात चुनौतीपूर्ण नजर आते हैं। यहां फल-सब्जियां ही नहीं, खाद्यान्न के दाम भी चढ़ रहे हैं।

    अक्सर देखा गया है कि गर्मी बढ़ने या बारिश ज्यादा होने से फलों और सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं, क्योंकि इनके भंडारण की समुचित व्यवस्था अपने देश में नहीं है। मगर क्या वजह है कि गेहूं, चावल जैसे खाद्यान्न की कीमतें भी चढ़ रही हैं, जबकि इनका संग्रह किया जा सकता है और हमारे पास इनका पर्याप्त भंडार भी है? वह भी तब, जब इनकी रिकॉर्ड पैदावार के दावे किए गए थे और हमने निर्यात पर भी रोक लगा दी थी? साफ है, भारत में विशेषकर खाने-पीने की वस्तुओं का प्रबंधन काफी कमजोर है, और यह भी कि शायद रिकॉर्ड उत्पादन नहीं हुआ है। कुछ विशेषज्ञ कहते भी हैं कि उत्पादन के आकलन का मौजूदा तरीका गलत है, जिसमें सुधार की सख्त जरूरत है।
    अभी महंगाई दो तरीकों से मापी जाती है- एक, थोक मूल्यों के आधार पर, और दूसरा, उपभोक्ता मूल्यों के आधार पर। थोक मूल्य मूलत: उत्पादकों से जुड़ा है। किसानों, फैक्टरियों या उत्पादन करने वाली इकाइयों आदि के थोक उत्पाद इसमें शामिल होते हैं। महामारी के बाद भारत में थोक मूल्य सूचकांक में काफी बढ़ोतरी देखी गई थी। एक समय तो यह 15 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा था। मगर इसकी तुलना में उपभोक्ता मूल्य उतना नहीं बढ़ा और वह सात-आठ प्रतिशत पर बना रहा। इसके बाद थोक मूल्य नीचे लुढ़का, लेकिन उपभोक्ता मूल्य पर आधारित महंगाई में बहुत कमी नहीं आई। रिजर्व बैंक द्वारा तय चार प्रतिशत (दो प्रतिशत ऊपर या नीचे) के लक्ष्य के करीब आने में भी इसे खासा वक्त लगा। आज भी यह पांच प्रतिशत से अधिक की रफ्तार से बढ़ रही है।
     
    सवाल है, महंगाई आम आदमी को किस तरह परेशान करती है? दरअसल, हर तबके के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का अर्थ अलग-अलग होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हर वर्ग के लिए उपभोग की प्राथमिकता अलग-अलग होती है। मसलन, गरीबों के बजट में खाने-पीने की वस्तुओं की हिस्सेदारी 40 फीसदी तक होती है, जबकि अमीर तबके में यह बमुश्किल पांच प्रतिशत। इसी कारण जब खाद्यान्न के दाम बढ़ते हैैं, तो गरीबों की थाली कहीं ज्यादा बिगड़ जाती है। इसके बनिस्बत, महंगाई अमीरों की बचत पर चोट करती है, क्योंकि वे अपनी बचत घटाकर ही महंगाई से लड़ते हैं, वहीं एक तबका व्यापारी वर्ग भी है, जिसके लिए महंगाई कारोबारी लाभ लेकर आती है।
     
     ऐसे में, जरूरी है कि महंगाई से पार पाने के लिए पर्याप्त उपाय किए जाएं। इस दिशा में फूड मैनेजमेंट, यानी खाद्य प्रबंधन काफी अहम साबित हो सकता है। गेहूं, चावल जैसे उत्पादों के दाम इसलिए फल अथवा सब्जियों की तरह तेजी से ऊपर-नीचे नहीं होते, क्योंकि इनकी सरकारी खरीद होती है और एक नियत मात्रा में इनका भंडारण किया जाता है। हमें बाकी उत्पादों के लिए भी यही रणनीति अपनानी चाहिए। विशेषकर टमाटर, आलू अथवा प्याज को कोल्ड स्टोरेज में रखा जा सकता है। बाकी सब्जियों अथवा फलों को खाद्य प्रसंस्करण के जरिये सहेजने की रणनीति बनाई जानी चाहिए। मौजूदा हालात में खाद्य प्रसंस्करण और खाद्य भंडारण को बढ़ावा देना काफी जरूरी है। मगर दिक्कत यह है कि इसमें पर्याप्त मात्रा में निवेश नहीं हो रहा। निवेशकों की चिंता है कि यदि वे भंडारण करते हैं और बाद में भंडारण की सीमा कम कर दी गई, तो उन्हें औने-पौने दाम पर उत्पाद बेचने होंगे, जिससे उनको घाटा हो सकता है। लिहाजा, सरकार को एक स्थायी नीति बनानी चाहिए। 
     
    उसे न सिर्फ इन उत्पादों की खरीद करनी चाहिए, बल्कि कारोबारियों को यह भरोसा भी देना चाहिए कि दाम ज्यादा ऊपर-नीचे नहीं होंगे। इससे कोल्ड स्टोरेज करने वाले लोगों या खाद्य प्रसंस्करण करने वाली कंपनियों को एक मुकम्मल संदेश जाएगा। वैसे भी, महंगाई बढ़ने पर सरकार दखल देने में देर नहीं करती। मसलन, टमाटर-प्याज के दाम बढ़ने पर वह खुद सस्ते दामों में इनको बेचने लगती है। लिहाजा, जब हर साल तात्कालिक तौर पर यही नीति अपनाई जा रही है, तो इसे स्थायी जामा क्यों नहीं पहना दिया जाता?
    विकसित देशों में यह नीति काफी कारगर रही है। वहां खाद्य प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां उत्पादन अधिक होने पर प्रबंधन की जिम्मेदारी संभाल लेती हैं। वहां बड़ी जोत वाली कॉरपोरेट कंपनियां भी अधिक हैं, जो सुनिश्चित करती हैं कि कैसे उत्पादों का भंडारण किया जाए? जबकि, भारत में छोटे किसानों की संख्या अधिक है, जिनके पास भंडारण की उचित सुविधा नहीं है। इसलिए जो काम विदेश में कंपनियां करती हैं, उसे हमारी सरकारों को करना होगा। फसलों की सरकारी खरीद के साथ-साथ उनका भंडारण भी किया जाना चाहिए। बेशक, इस काम में प्रशासनिक चुनौतियां भी आड़े आएंगी, लेकिन ऐसा करना जरूरी है।
    महंगाई कम करने में रिजर्व बैंक भी कुछ हद तक अपनी भूमिका निभा सकता है। वह मांग को नियंत्रित करके महंगाई कम कर सकता है, लेकिन जहां आपूर्ति शृंखला में गड़बड़ी है, वहां वह खाली हाथ रह सकता है। कराधान में भी सुधार आवश्यक है और हमें अप्रत्यक्ष कर को कम करना चाहिए। अभी कर-जीडीपी अनुपात 17 फीसदी के करीब है, जिसमें प्रत्यक्ष कर की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत और अप्रत्यक्ष कर की 6 प्रतिशत है। ऐसे में, यदि हम लग्जरी उत्पादों पर ही अप्रत्यक्ष कर लगाएं, तो गरीबों को काफी राहत मिल सकेगी। मतलब साफ है कि महंगाई नियंत्रित करने में रिजर्व बैंक की उतनी भूमिका नहीं है, जितनी सरकार की है।

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  • चुनाव परिणामों से जुड़ी फिजूल की अटकलें

    20-May-2024

    ललित गर्ग - 

    पांचवें चरण के तहत सोमवार को आठ राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों की 49 लोकसभा सीटों पर वोट डाले गये, इसके बाद दो ही चरण की वोटिंग शेष रह जाएगी। शेष रहे दो चरणों के चुनाव पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं और जैसे-जैसे चुनाव सम्पन्नता की ओर बढ़ रहे हैं, राजनीतिक दलों की आक्रामकता अब चुनाव परिणामों को लेकर फिजूल की अटकलों के रूप में देखने को मिल रही है। वैसे तो तीन चरणों के बाद ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलंे पर सारे चुनावी परिदृश्य बन रहे हैं। आम मतदाता की जरूरतों से जुड़े मुद्दों पर सार्थक बहस करने की बजाय चुनाव नतीजों की भविष्यवाणियों में चुनाव परिदृश्यों को भटकाने की कुचेष्ठाएं हो रही है, यह लोकतंत्र के इस महानुष्ठान को धुंधलाने का दूषित प्रयास है। चुनाव परिणामों को लेकर हो रही इन चर्चाओं से जहां आम मतदाता भ्रमित हो रहा है, वही देश के शेयर बाजारों में गिरावट की स्थितियां आर्थिक असंतुलन का कारण बन रही है। राजनीतिक दलों की सोची-समझी रणनीति के तहत चुनाव परिणामों की संभावनाएं व्यक्त करना, अटकले एवं कयास लगाना चुनावी परिदृश्यों को भटकाने की कोशिशें हैं, इसमें राजनीतिक विश्लेषण और उनके निष्कर्ष भी कहीं-न-कहीं ऐसा वातावरण बना रहे हैं, जिससे मतदाता को लुभाया जा सके, भटकाया जा सके या गुमराह किया जा सके।
     कांग्रेस हो या भाजपा और अन्य दल सभी चुनाव परिणाम की अटकलों पर ध्यान लगाये हुए हैं, वे ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं करते हुए जीत के दावे कर रहे हैं, जिससे मतदाता द्वंद्व की स्थिति में हैं। राजनीतिक दलों ने राष्ट्र के जरूरी एवं बुनियादी मुद्दें को तवज्जों न देकर राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचय दिया है। दिक्कत यह है कि सभी पार्टियां अपने दल या गठबंधन की जीत को सुनिश्चित बताते हुए इस तरह के विश्लेषण और निष्कर्ष निकाल रहे हैं जो सत्यता से दूर हैं। ऐसे निष्कर्ष अतीत में कई बार गलत साबित हो चुके हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा को ऐसी जीत मिली, जिससे देश में तीन दशक बाद किसी पार्टी ने अपने बहुमत वाली सरकार बनाई। 2019 में पार्टी ने उससे भी बड़ी जीत हासिल की। लेकिन 2019 में भी चुनाव नतीजों से पहले शेयर बाजार लड़खड़ाते नजर आ रहे थे एवं विपक्षी दल भाजपा के हार की भविष्यवाणी कर रहे थे। 2014 में भी कई विश्लेषक उत्तरप्रदेश की कई सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के कथित ध्रूवीकरण का हवाला देते हुए खास तरह के चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी कर रहे थे, जो गलत साबित हुए। ऐसी ही भविष्यवाणियां इस बार भी बढ़-चढ़ कर हो रही है, लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित होने वाले हैं, चौंकाने एवं चमत्कृत करने वाले होंगे।
    निश्चित ही चुनाव परिणामों से जुड़ी अटकलों का शेष रहे दो चुनाव चरणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता हैं। पहले तीन चरणों के कम मतदान को सत्तापक्ष के समर्थक मतदाताओं के उत्साह में कमी का संकेत बताया जा रहा है तो महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में एनडीए के सहयोगी दलों की वोट ट्रांसफर करने की क्षमता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। जहां तक वोटरों के उत्साह में कमी की बात है तो अव्वल तो चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के मुताबिक वोट प्रतिशत का अंतर काफी कम रह गया है, दूसरी बात यह कि वोट न देने वालों में किस पक्ष के समर्थक ज्यादा हैं, इसे लेकर परस्पर विरोधी दावे किए जा रहे हैं जिनकी सचाई 4 जून को ही सामने आएगी। लेकिन चुनाव परिणामों को लेकर विरोधाभासी अटकलों का असर मतदाता पर पड़ता ही है। समूचे देश की बात करें तो इस पर लगभग आम राय है कि इन चुनावों में कोई लहर नहीं है। कई चुनाव विशेषज्ञों के अनुसार 2019 के चुनाव में पुलवामा में हुई घटनाओं और उसके बाद बालाकोट में जो हुआ उसके बाद देश भर में राष्ट्रीय सुरक्षा की लहर दौड़ गई थी। इस बार सोचा गया था कि श्रीराम मन्दिर के उद्घाटन का व्यापक असर होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विकास का मुद्दा अवश्य मतदाता के दिमाग में रहा है। फिर भी अगर किसी एक नेता के पक्ष में मतदाताओं की पसंद मुखरता से सामने आ रही है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं। सवाल है कि क्या यह मुखरता वोट में भी परिणत होगी? जवाब के लिए 4 जून का इंतजार करना बेहतर होगा। 
    अनेक चुनाव विश्लेषण बताते हैं कि 1999 और 2004 में कम मतदान प्रतिशत से भाजपा को फायदा हुआ, लेकिन 2014 में अधिक मतदान से लाभ हुआ। लेकिन विश्लेषक मतदान प्रतिशत और अंतिम परिणामों के बीच स्पष्ट संबंध बताने में विफल हैं। बाज़ार के इस उतार चढ़ाव के बीच निवेशक लोकसभा चुनाव में कुछ चरणों के कम मतदान प्रतिशत को लेकर चिंतित हैं। वे चुनाव परिणाम के बारे में अनिश्चितता पाले हुए हैं। निवेशक ही नहीं, मतदाता एवं नेता भी भ्र्रम एवं भटकाव पाले हुए है। लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा विरोधी ‘इंडिया’ गठबंधन के सत्ता में आने पर तृणमूल कांग्रेस नई सरकार के गठन में ‘बाहर से समर्थन’ देगी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की इस टिप्पणी के बाद से ही राजनीतिक हलकों में कयासों और अटकलों का दौर तेज़ हो गया था। सवाल उठ रहा था कि क्या उनकी इस टिप्पणी में कोई नया संकेत छिपा है? पांचवें चरण की सम्पन्नता के बाद यह साफ हो गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस बार सत्तारूढ़ भाजपा की कांग्रेस समाहित विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के साथ कांटे की लड़ाई हैं और दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी विजय का दावा कर रहे हैं। 
    कम मतदान की पहेली का एक मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि मतदाता को कोई उत्साह नहीं है, क्योंकि उसको ये लगता है कि 400 सीटों की जीत का दावा किया जा रहा है तो उसके वोट से कोई फर्क नहीं पडने वाला है। एक वजह ये भी हो सकती है कि वह परिणाम को लेकर पहले से ही आश्वस्त है, लेकिन इन दोनों वजहों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं का रोल है, ये मतदाता की पहचान से जुड़े मामले नहीं हैं। विपक्ष इस बात को हवा दे रहा है कि जब सत्ताधारी दल का कार्यकर्ता जनता को बूथ पर लाने में फेल होता है तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ है। कुछ जानकार कह रहे हैं कि मामला उतना सपाट नहीं है। एक तो मौसम की मार और दूसरा ये एक ऐसा राजनीतिक मैच है जिसका नतीजा पहले से पता है इसलिए ऐसे मैच में कोई उत्साह नहीं होना बहुत सामान्य है। पांचवें चरण में हो रहा लोकसभा का यह चुनाव भाजपा के लिए ‘सेफ जोन’ की तरह माना जाता है। दरअसल भाजपा और एनडीए ने मिलकर पिछले लोकसभा चुनाव में पांचवें चरण की 49 सीटों पर जिस तरह से बैटिंग की थी, वह उसको सत्ता की सीढ़ी तक ले गई। जबकि 2014 में भी भाजपा ने अपने सियासी ग्राफ को इस चरण में मजबूती के साथ आगे बढ़ाया था। सियासी जानकारों का मानना है कि भाजपा ने अपने इसी मजबूत सियासी ग्राफ के मद्देनजर पूरी फील्डिंग पांचवें चरण की 49 सीटों पर लगा दी है। वहीं इंडिया गठबंधन और उसके सियासी दलों, जिसमें कांग्रेस और सपा समेत शिवसेना ने पांचवें चरण के लिए 2014 से पहले वाली रवायत को आगे बढ़ाने के लिए पूरी तैयारी की है। अब परिणाम तो भविष्य के गर्भ में हैं। बहरहाल, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद हुए पहले मतदान में प्रतिशत का अधिक रहना सुखद ही है। जो घाटी के लोगों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास बढ़ने को दर्शाता है। कालांतर ये इस केंद्रशासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने और यथाशीघ्र विधानसभा चुनाव करवाने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। बहरहाल, पूरे देश में चुनाव प्रतिशत में कमी के रुझान पर चुनाव आयोग को भी गंभीर मंथन करना चाहिए कि मतदान बढ़ाने के लिये देशव्यापी अभियान चलाने के बावजूद वोटिंग अपेक्षाओं के अनुरूप क्यों नहीं हो पायी। वहीं राजनीतिक दलों को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि मतदाता के मोहभंग की वास्तविक वजह क्या है। उन्हें अपनी रीतियों-नीतियों तथा घोषणापत्रों की हकीकत को महसूस करते हुए अतिश्योक्तिपूर्ण भविष्यवाणियों एवं अटकलों से बचना चाहिए। 

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  • जब मुफ़ासा दहाड़ता, तो नवजात सिम्बा बढ़ जाते

    04-Mar-2024

    यदि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी मुफासा, शेर राजा हैं, तो राज्य के मुख्यमंत्री उनके वफादार सिम्बा हैं। जैसे ही वह अपने राज्य की आठ सप्ताह लंबी वोट यात्रा पर निकल रहे हैं, भाजपा को उम्मीद है कि राज्य के मुख्यमंत्री उनकी आभा का विस्तार करेंगे। चूँकि प्रत्येक राज्य में मुख्यमंत्री भाजपा के लिए दूसरा इंजन हैं, उनमें से प्रत्येक की क्षमता ही अंतिम संख्या तय करेगी। भाजपा के 12 मुख्यमंत्रियों में से छह गुजरात, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और असम से पहली बार लोकसभा चुनाव में अपने राज्यों का नेतृत्व करेंगे। महाराष्ट्र में भी बीजेपी के सहयोगी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में चुनाव होंगे. सात राज्यों में 158 सीटें हैं। भाजपा और उसकी सहयोगी शिवसेना ने 2019 में 142 राज्यों में जीत हासिल की। 

    निःसंदेह, प्रधान मंत्री अपनी पार्टी के बजाय अपने व्यक्तित्व से प्रेरित होकर रिकॉर्ड कार्यकाल के लिए जुझारू ढंग से प्रचार कर रहे हैं; फिर भी, वह अपने द्वारा सीधे चुने गए मुख्यमंत्रियों सहित क्षेत्रीय नेताओं की निगरानी कर रहे हैं। जबकि वह अपने रोड शो और बड़े पैमाने पर भाग लेने वाली सार्वजनिक बैठकों के साथ-साथ हाई-वोल्टेज मीडिया ब्लिट्ज पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, मतदाताओं की लामबंदी को राज्य इकाइयों पर छोड़ दिया गया है। सभी मुख्यमंत्रियों को तीन मापदंडों पर परखा जाएगा- प्रदर्शन, कनेक्टिविटी और स्वीकार्यता। उनमें से अधिकांश आरएसएस और उसकी छात्र शाखा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से हैं, और उम्मीद है कि वे केंद्र और अपने राज्यों में एक दशक पुराने शासन की दोहरी सत्ता को हरा देंगे। 
    48 सीटों वाला महाराष्ट्र बीजेपी नेताओं के दिमाग में सबसे ऊपर है. यह एनडीए के लिए मोदी के जादुई लक्ष्य '400 पार अबकी बार' में निर्णायक भूमिका निभाने जा रहा है। 2019 में, पहली बार मुख्यमंत्री बने देवेंद्र फड़नवीस, जो अब उपमुख्यमंत्री हैं, के नेतृत्व में भाजपा ने कुल 48 सीटों में से 23 और उसकी सहयोगी शिवसेना ने 18 सीटें जीतीं। हालाँकि यह प्रधान मंत्री के पक्ष में अधिक जनादेश था, स्थानीय नेतृत्व ने एक एकजुट टीम के रूप में लड़ाई लड़ी। 
    अब राज्य का नेतृत्व बागी शिव सेना नेता शिंदे के हाथ में है. स्वभाव से क्षमा न करने वाले नेता 60 वर्षीय शिंदे को कैडर प्रबंधन और जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के मामले में हल्का माना जाता है। जहां भाजपा अपने दोबारा प्रदर्शन को लेकर आश्वस्त है, वहीं शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना ही सिरदर्द पैदा कर रही है। 18 सीटों की संख्या में किसी भी गिरावट से भाजपा पर अन्य राज्यों में अधिक सीटें हासिल करने का दबाव बढ़ जाएगा। शिंदे डबल इंजन सरकार का धीमा हिस्सा प्रतीत होते हैं।
    29 सीटों वाला मध्य प्रदेश भी प्रधानमंत्री के लिए भाजपा के लिए 370 सीटों के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। राज्य में कांग्रेस के सत्ता में रहते हुए भी भाजपा ने 29 में से 28 सीटें जीतीं। लेकिन पिछले साल दिसंबर में राज्य चुनाव जीतने के तुरंत बाद, मोदी ने पुराने योद्धा शिवराज चौहान की जगह अपेक्षाकृत कम चर्चित 58 वर्षीय मोहन यादव को राज्य का 19वां मुख्यमंत्री बनाकर एक परिकलित जोखिम उठाया। मिलनसार, स्वच्छ और मिलनसार ओबीसी नेता को इसलिए नहीं चुना गया क्योंकि वह यादव हैं, बल्कि इसलिए चुना गया क्योंकि वह किसी गुट का हिस्सा नहीं थे। इसके अलावा, वह लो प्रोफाइल रहते हैं और हिंदुत्व के एजेंडे को पूरी दृढ़ता के साथ आगे बढ़ा रहे हैं। भाजपा के कद्दावर नेताओं के ग्रहण और कांग्रेस के बीमार होने के कारण, यादव को अपने नेतृत्व के लिए कोई खतरा नहीं है और वह मोदी की मंत्रमुग्ध कर देने वाली अपील को वोटों में बदलने के लिए बेहतर स्थिति में हैं। 26 सीटों वाला गुजरात एक कट्टर भगवा राज्य है। भाजपा लगभग तीन दशकों से सत्ता में है। जब विजय रूपाणी मुख्यमंत्री थे तब इसने सभी 26 सीटें भाजपा को दिला दीं। 61 वर्षीय भूपिंदर रजनीकांत पटेल, एक सिविल इंजीनियर, 2021 से 17वें मुख्यमंत्री हैं। एक सरल पटेल ने सरकार या संगठन में किसी भी विवाद के बिना राज्य का प्रबंधन किया है। गुजरात और मोदी एक दूसरे के लिए बने हैं। पटेल उस राज्य में एक भी सीट नहीं हार सकते, जिसने भारत को सबसे शक्तिशाली और लोकप्रिय प्रधानमंत्री दिया है। 25 सीटों वाला राजस्थान शायद बीजेपी के लिए सबसे कमजोर राज्य है. 2019 के दौरान, इसने मोदी के नाम पर 24 सीटें जीतीं, जबकि चतुर कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत शासन कर रहे थे। लेकिन अब भाजपा ने पहली बार विधायक बने 56 वर्षीय भजन लाल शर्मा को राज्य का 14वां मुख्यमंत्री बना दिया है। एबीवीपी के पूर्व कार्यकर्ता, अभावग्रस्त शर्मा ने अब तक कोई प्रशासनिक या राजनीतिक कौशल नहीं दिखाया है। हालाँकि उन्हें दो अनुभवी और अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय उपमुख्यमंत्री दिए गए हैं, लेकिन शर्मा को राज्य में एक मजबूत कांग्रेस की कठिन चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने किसी भी चुनाव में पार्टी का नेतृत्व नहीं किया है. न ही उन्होंने पार्टी में कोई महत्वपूर्ण पद संभाला है। जहां मोदी अपनी करिश्माई मुद्रा से मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में सक्षम हो सकते हैं, वहीं शर्मा को प्रमुख इंजन की गति तेज करनी होगी। 14 सीटों वाला असम, पूर्वोत्तर में भाजपा का प्रवेश द्वार है। 2019 में बीजेपी ने नौ सीटें जीतीं. अब वह एक पूर्व कांग्रेसी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने जा रही है. 55 वर्षीय जुझारू हिमंत बिस्वा सरमा, 2021 के बाद से 15वें मुख्यमंत्री हैं, जो भाजपा के संकटमोचक हैं। उनका राज्य संख्या बल में छोटा हो सकता है, लेकिन भाजपा अपने निर्माण के लिए उन पर काफी हद तक निर्भर है 

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  • प्रशासनिक भ्रष्टाचार के लिए प्रशासन ही जिम्मेदार

    04-Mar-2024

    भारतीय प्रशासन में सच्चरित्रता तथा नैतिकता की स्थापना करना एक विषम समस्या है। ऐसा भ्रष्टाचार परम्परागत व विश्वव्यापी है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता तथा केवल कुछ सीमा तक इसे कम जरूर किया जा सकता है। कौटिल्य ने कहा है कि सार्वजनिक कर्मचारियों द्वारा सरकारी धन का दुरुपयोग न करना उसी तरह से संभव है जिस तरह जीभ पर रखे शहद को न चखना है। भ्रष्टाचार एक ऐसा नासूर है जिसकी लोक कथाओं के किस्से ऐतिहासिक दस्तावेजों तक चर्चित रहे हैं। वास्तव में राजनीति व राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार के जन्मदाता हैं तथा उनके ही संरक्षण में पल कर प्रशासनिक अधिकारी अनैतिकता का काम करते हंै। वास्तव में भ्रष्टाचार का जन्म सत्ता के ऊंचे शिखरों से आरम्भ होता है जो धीरे-धीरे पूरे तन्त्र में रिस जाता है तथा इस अमररूपी बेल को राजनीतिज्ञों व उच्च प्रशासनिक अधिकरियों द्वारा पाला व पोसा जाता है। आज प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुख सुविधाएं स्वयं व परिवार के लिए जुटाना चाहता है। ऊंचा ठाठ-बाठ बनाए रखना वस्तुत: प्रतिष्ठा का परिचायक बन चुका है। 

    वेतनभोगियों की आय तो सीमित होती है, मगर वे भ्रष्ट साधनों से अतिरिक्त आय जुटाने में लगे रहते हैं। यद्यपि सरकार ने वेतनभोगियों के भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लगाने के लिए कई नियम व कानून बना रखे हैं, मगर इन सबके बावजूद ऐसे भ्रष्ट लोग कानूनों से बचने में सफल हो जाते हैं। कितनी विडंबना है कि राजनीतिज्ञों ने विभिन्न कार्पोरेट के लोगों से अपनी पार्टियों को चलाने के लिए इलैक्ट्रोल बॉन्ड की खरीदो-फरोख्त करने की न केवल इजाजत दे रखी थी, बल्कि इस धन को आयकर से भी बाहर कर रखा था तथा इसी तरह कोई भी व्यक्ति इस सम्बन्ध में सूचना भी प्राप्त नहीं कर सकता था। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस मक्कडज़ाल को तोड़ा है तथा भ्रष्टाचार के इस अवैध मार्ग को परास्त किया है। वास्तव में राजनीतिज्ञ प्रशासन को अपने हाथ में लेकर अपनी स्वार्थपूर्ण नीतियों व नियमों को बनाते रहते हंै। उस समय में आरबीआई के गवर्नर रहे अर्जित पटेल ने चुनाव आयोग को आगाह किया था कि यह स्कीम मनी लॉन्डरिंग को बढ़ावा देगी जोकि देश के हित में नहीं होगा। मगर पिंजरे का तोता चुनाव आयोग इस सम्बन्ध में कुछ न कर सका तथा चुप्पी साधे बैठे रहा। भ्रष्टाचार को तो मानो सामाजिक मान्यता प्राप्त हो चुकी है। पैसा व प्रतिष्ठा तो अब एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। पांच-चार हजार की रिश्वत तो चाय पानी के रूप में ही मानी जाती है। प्रशासन में छोटी छोटी अनियमितताएं अब स्वाभाविक प्रक्रियाएं मान ली जाती हैं। जो व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी करता है उसे असामाजिक व्यक्ति माना जाता है। प्रशासनिक कार्यों में नैतिकता समाहित करने के लिए कई सस्थाएं बनाई गई हैं, मगर वे भी आम तौर पर निष्क्रिय ही पाई जाती हैं। सतर्कता विभाग, भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाएं, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो, पुलिस का गुप्तचर विभाग, लेखा परीक्षण तथा लोकायुक्त सहित सभी विभाग पूर्णत: क्रियाशील व प्रभावी नहीं हो पा रहे हंै। 
    उधर हमारी न्यायिक व्यवस्था भी इतनी जटिल है कि अपराधी किसी न किसी बहाने छूटने में सफल हो जाते हैं। अधिकतर देखा गया है कि बड़े अधिकारियों को पकडऩा मुश्किल होता है तथा छोटे मोटे कर्मियों जैसे कि पटवारी, कानूनगो, वन रक्षक या फिर क्लर्क इत्यादि लोगों को पकडक़र ये सारे विभाग अपना टारगेट पूरा करते रहते हंै। वास्तव में प्रशासनिक वेतनभोगियों को बचाने के लिए हमारे कानून ने एक बहुत बड़ा बचाव व संरक्षण का तरीका समाहित कर रखा है। भारतीय दंड प्रक्रिया की धारा 197 के अन्तर्गत किसी भी न्यायाधीश या लोकसेवक द्वारा यदि कोई भ्रष्ट आचरण किया जाता है तथा अमुक व्यक्ति पुलिस द्वारा पकड़ भी लिया जाता है, तब भी पुलिस को ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध चालान को न्यायालय में भेजने से पहले उस व्यक्ति के नियुक्त अधिकारी से अभियोजन की स्वीकृति लेना आवश्यक है। आम तौर पाया गया है कि भ्रष्ट उच्चाधिकारियों की स्वीकृति को टाले रखा जाता है तथा कई वर्षों तक यह खेल चलता रहता है। तदोपरान्त एक समय के बाद उस चालान की न्यायालय में भेजने की समय सीमा समाप्त हो जाती है, हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में कई बार निर्णय दे रखे हंै कि भ्रष्टाचार करना किसी कर्मचारी का आधिकारिक कार्य का हिस्सा नहीं है तथा कि ऐसे मामलों में चालान को बिना स्वीकृति के ही न्यायालय में भेजा जा सकता है, मगर फिर भी देखा गया है कि कुछ भ्रष्ट अधिकारी इस कानूनी धारा का लाभ उठा कर सजा से बचते रहते हैं। विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के भ्रष्ट आचरण को रोकने की जिम्मेदारी तो उनके अपने विभाग की ही होनी चाहिए, मगर चोर चोर मौसेरे भाई की उक्ति की पालना करते हुए आम तौर पर अधिकारी चुप्पी साधे रखते हैं तथा यह सारा कार्य पुलिस को ही करना पड़ता है। 
    जब सारा तन्त्र ही भ्रष्ट हो, तब पुलिसमैन भी कोई ऐसा फरिश्ता या अली बाबा नहीं हो सकता जो ऐसे भ्रष्ट कर्मचारियों को पकडऩे में सक्षम हो पाए। यह भी देखा गया है कि भ्रष्ट कर्मियों द्वारा अज्ञात स्त्रोतों से बनाई गई सम्पत्ति की जांच नहीं की जाती तथा वे देखने में ईमानदार ही लगते हैं, जबकि उन्होंने न जाने कितने करोड़ों की सम्पत्ति कई स्थानों पर अपने रिश्तेदारों या फिर चहेतों के नाम पर बना रखी होती है। इसी तरह ऐसे भ्रष्ट अधिकारी लाखों करोड़ों रुपए अपने बच्चों की पढ़ाई या उनके विवाह पर खर्च करते पाए जाते हैं तथा अपनी दो नम्बर की कमाई का किसी भी पुलिस तन्त्र को पता ही नहीं लगने देते। आखिर क्या कारण हैं कि एक ही पद तथा एक ही वेतनमान पर कार्यरत एक ईमानदार व एक भ्रष्ट कर्मी का जीवन स्तर न केवल अलग-अलग होता है बल्कि एक कम वेतनमान वाले कर्मी का आलीशान बंगला व उसकी अन्य सुख सुविधाएं दूसरे से कहीं अधिक होती हंै। वास्तव में अधिकांश व्यक्ति नौकरशाही की कार्यप्रणाली, कठोर नियमों तथा जटिल प्रक्रियाओं से घिरी होने के कारण अपना कार्य शीघ्रतापूर्वक सम्पादित करवाने हेतु घूस देना पसन्द करते हैं तथा कर्मचारियों की यह प्रवृत्ति बन गई है कि बिना घूस के कार्यों को आम तौर पर नहीं किया जाता।

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  • प्रवासी मजदूरों के बच्चे और उनके शैक्षणिक विकास का प्रश्न

    01-Mar-2024

    बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य का बेहतर विकास हो इसके लिए केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारों ने अपने अपने स्तर से कई तरह की योजनाएं चला रखी हैं. इसके अतिरिक्त कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस दिशा में सक्रिय रूप से काम कर रही हैं. इन सबका उद्देश्य गरीब और वंचित मज़दूरों और उनके परिवारों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ना है. लेकिन इतने प्रयासों के बावजूद भी सबसे अधिक असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूर और इनके बच्चे सरकारी सेवाओं से वंचित नज़र आते हैं. जिन्हें इससे जोड़ने के लिए कई गैर सरकारी संस्थाएं प्रमुख भूमिका निभा रही हैं. देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी यह स्थिति स्पष्ट नज़र आती है. राजस्थान के अजमेर और भीलवाड़ा सहित पूरे राज्य में लगभग 3500 से अधिक ईट भट्टे संचालित हैं. जिन पर छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश और राजस्थान के ही सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से लगभग 1 लाख श्रमिक प्रति वर्ष काम की तलाश में आते हैं. यह मज़दूर 8 से 9 माह तक परिवार सहित इन ईंट भट्टों पर काम करने के लिए आते हैं. इनमें बड़ी संख्या महिलाओं, किशोरियों और बच्चों की होती है. जहां सुविधाएं नाममात्र की होती है. वहीं बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए भी कोई सुविधा नहीं होती है. लेकिन इसके बावजूद आर्थिक तंगी मजदूरों को परिवार सहित इन क्षेत्रों में काम करने पर मजबूर कर देता है। यहां काम करने वाले अधिकतर मजदूर चूंकि अन्य राज्यों के प्रवासी होते हैं, ऐसे में वह सरकार की किसी भी योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। जिसका प्रभाव काम करने वाली महिलाओं और उनके बच्चों के सर्वांगीण विकास पर पड़ता है। 

    इस संबंध में सेंटर फाॅर लेबर रिसर्च एंड एक्शन, अजमेर की जिला समन्वयक आशा वर्मा बताती हैं कि "ईट भट्टो पर लाखों प्रवासी श्रमिक और उनके बच्चे हैं, जिन्हें स्वास्थ्य और महिला बाल विकास विभाग की सेवाएं मिलनी चाहिए, लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा नहीं होता है। 0 से 5 साल के बच्चों में पोषण की स्थिति देखें तो सबसे ज्यादा समस्या भी इन प्रवासी श्रमिकों के बच्चों में है। जिनमें सही समय पर टीकाकरण, खानपान और पोषणयुक्त आहार नहीं मिलने के कारण कुपोषण दर ज्यादा बढ़ने का खतरा रहता है। वहीं ईट भट्टो पर महिलाओं और किशोरियों की स्वास्थ्य स्थिति देखें तो यह भी चिंताजनक स्थिति में नजर आता है, क्योंकि इन जगहों पर इनके लिए शौचालय और स्नानघर की उचित व्यवस्था नहीं होती है। ऐसे में खुले में शौच इसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसके अतिरिक्त माहवारी के समय सेनेटरी नैपकिन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण भी यह महिलाएं और किशोरियां कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं से जूझती रहती हैं।" 
    आशा वर्मा के अनुसार इन प्रवासी मजदूरों के बच्चों और महिलाओं में स्वास्थ्य की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए संस्था पिछले तीन साल से अजमेर और भीलवाड़ा क्षेत्र के 20 ईट भट्टो पर बालवाड़ी केन्द्र संचालित कर रही है, जिसमें 0 से 6 साल के 620 बच्चों को नामांकित किया गया है। जिन्हें सूखा व गर्म पोषाहार दिया जा रहा है। जो बच्चे कुपोषण की श्रेणी में आते हैं उन्हें न केवल कुपोषण उपचार केंद्र में दिखाया जाता है बल्कि संस्था की ओर से उनके साथ विशेष काम किया जाता है। उन्होंने बताया कि पिछले तीन सालों में परिवार के साथ ईट भट्टो पर रहने वाले कुपोषित बच्चों की स्थिति देखें तो इसमें काफी सुधार आया है। अब तक करीब 100 से ज्यादा बच्चों को इन बालवाड़ी केंद्र के माध्यम से कुपोषण से मुक्त स्वस्थ शिशु बनाया गया है। इसके अतिरिक्त समय समय पर उन बच्चों और गर्भवती महिलाओं का सम्पूर्ण टीकाकरण करवाने में भी पहल की गई है। इसके अतिरिक्त इन बालवाड़ी केंद्रों पर बच्चों के साथ लर्निंग गतिविधियां भी की जाती हैं ताकि उनमें शिक्षा के प्रति लगन बनी रहे। इसके लिए हर माह बच्चो की ग्रोथ मॉनिटरिंग भी की जाती है। 
    ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या ईट भट्टों पर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के बच्चों पर शिक्षा का अधिकार कानून लागू नहीं होता है? हालांकि सरकार का हमेशा प्रयास रहता है कि बच्चों की शिक्षा की स्थिति में सुधार हो. इसके लिए सरकार हमेशा नई नई योजनाएं भी लेकर आती है, ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से छूटे नहीं. इसके लिए देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू किया गया. लेकिन इसके बावजूद अधिकतर प्रवासी मजदूरों के बच्चे इस अधिकार से वंचित रह जाते हैं। आशा वर्मा के अनुसार इस दिशा में काम कर रही सीएलआरए और उसकी जैसी अन्य गैर सरकारी संस्थाएं इस इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। जिनकी ओर से हर साल शिक्षा विभाग को इन बच्चों को स्थानीय स्कूल से जोड़ने के लिए सूची उपलब्ध करवाई जाती है। हालांकि अभी तक इन बच्चो का शिक्षा से जुड़ाव हो इसके लिए विभाग की ओर से कोई ढांचा तैयार नही हुआ है। यही कारण है कि यह प्रवासी बच्चे पढ़ने और खेलने कूदने की उम्र में माता-पिता के साथ दिहाड़ी मजदूर बन रहे हैं। आशा वर्मा के अनुसार इन प्रवासी बच्चों के पास कोई दस्तावेज नहीं होने और अपने गृह नगर से बीच में ही स्कूल छोड़कर पलायन करने के कारण कार्यस्थल के आसपास के सरकारी स्कूल उन्हें प्रवेश देने में आनाकानी करते हैं। जबकि शिक्षा का अधिकार कानून में बिना किसी दस्तावेज के सभी बच्चो का स्कूल में प्रवेश होने की बात कही गई है. लेकिन जागरूकता की कमी के कारण यह सरकारी स्कूल उन्हें बिना दस्तावेज़ के प्रवेश देने से इंकार कर देते हैं। यह शिक्षा का अधिकार कानून का सरासर उल्लंघन है. आशा वर्मा बताती हैं कि ने बताया कि तीन सालों में अजमेर और भीलवाड़ा जिला के 20 ईट भट्टो पर करीब 1800 प्रवासी बच्चे इस प्रकार के बालवाड़ी केंद्रों पर नामांकित हुए हैं. जो एक बड़ी उपलब्धि है. वास्तव में, राजस्थान में किसी भी ईट भट्टे पर सरकार की ओर से आंगनबाड़ी केन्द्र नहीं होने के कारण लाखों बच्चों का बाल्यावस्था में जो विकास होना चाहिए इन मूलभूत अधिकारों से यह सभी प्रवासी बच्चे वंचित रह जाते हैं. जिससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित हो जाता है. ऐसे में सरकार को इस प्रकार की नीति, योजनाएं और ढांचा तैयार करनी चाहिए जिससे प्रवास होने वाले बच्चे भी शिक्षा जैसे मूल अधिकार से वंचित न हो सकें. 

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  • गाजा और यूक्रेन में शत्रुता के बीच पश्चिम के रुख पर संपादकीय

    01-Mar-2024

    जैसे-जैसे गाजा में इजरायल का विनाशकारी युद्ध बढ़ रहा है, घिरी हुई आबादी पर मौत और भुखमरी फैल रही है, दुनिया पर इसका प्रभाव फैल रहा है। संघर्ष के विरोध में यमन के हौथी समूहों द्वारा जहाजों पर किए गए हमलों, परिवहन लागत में वृद्धि और वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीति ऊंची रहने के कारण लाल सागर अधिकांश जहाजों के लिए सीमा से बाहर बना हुआ है। व्यापक मध्य पूर्व मंथन में है, सऊदी अरब और इज़राइल जैसे प्रमुख अरब देशों के बीच सामान्यीकरण की संभावनाएं अब दूर दिखाई दे रही हैं। और, तेजी से, गाजा की स्थिति इस बात को प्रभावित कर रही है कि दुनिया के अधिकांश लोग यूक्रेन में ग्रह के दूसरे प्रमुख युद्ध पर पश्चिम की कहानी को कैसे देखते हैं। पिछले हफ्ते, जैसे ही यूक्रेन पर रूस के युद्ध को दो साल पूरे हुए, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ ने मॉस्को और यहां तक कि अन्य देशों की कंपनियों के खिलाफ नए प्रतिबंध लगाए - जिनमें भारत की एक कंपनी भी शामिल है - जाहिरा तौर पर क्रेमलिन की युद्ध मशीन के साथ काम करने के लिए। फिर भी यूक्रेन पर रूस का क्रूर युद्ध जारी है, गाजा में अपनी भयानक हत्याओं को रोकने के लिए इजरायल पर अपने विशाल प्रभाव का सार्थक उपयोग करने के लिए अमेरिका और यूरोपीय संघ की अनिच्छा, मॉस्को के खिलाफ ग्लोबल साउथ को एकजुट करने के उनके प्रयासों को कमजोर करती है। अमेरिकी सरकार, सोची-समझी लीक के माध्यम से, बेंजामिन नेतन्याहू के युद्ध को आगे बढ़ाने से नाखुश होने का दावा करती है, जिसमें लगभग 30,000 लोग मारे गए हैं, जिनमें से आधे से अधिक महिलाएं और बच्चे हैं। फिर भी, इज़राइल का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता, अमेरिका चाहता है कि कांग्रेस अपने युद्धरत सहयोगी को और अधिक धन और हथियार भेजे। संयुक्त राष्ट्र में, अमेरिका युद्धविराम के आह्वान को रोकने के लिए अपने वीटो का उपयोग करना जारी रखता है - भले ही वह सुरक्षा परिषद में तेजी से अलग-थलग होता जा रहा है। गाजा में नरसंहार के बीच, अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ताओं को पत्रकारों और उनके खोजी सवालों द्वारा प्रतिदिन अपमानित किया जाता है, जो एक तरफ मानवाधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानून के लिए वाशिंगटन के घोषित समर्थन और दूसरी तरफ उन मूल्यों का उल्लंघन करने वाले देश की दृढ़ रक्षा के बीच की व्यापक खाई को उजागर करता है। अब चार महीने से अधिक समय हो गया है। एक विचारधारा है जो तर्क देती है कि अमेरिका की जड़ता यूक्रेन में शत्रुता को समाप्त करने के लिए सक्रिय रूप से शामिल होने की पश्चिम की क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। इस पृष्ठभूमि में, पश्चिमी राजनेताओं और यूक्रेनी सरकार के लिए यह तर्क देना मुश्किल है कि रूस से मुकाबला करने के लिए बाकी दुनिया को उनके पीछे आना चाहिए। पश्चिम का रक्त-रंजित पाखंड मॉस्को को यूक्रेन में अपने अत्याचारों पर पर्दा डालने में मदद करता है और नियम-आधारित व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर करता है, जिसका समर्थन करने का दावा अमेरिका करता है, लेकिन उसे अपवित्र करने का दोषी है। 


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  • ईसीआई द्वारा अजीत पवार गुट को ‘असली’ एनसीपी और दलबदल विरोधी कानून के रूप में मान्यता देने पर संपादकीय

    09-Feb-2024

    भारत के चुनाव आयोग ने अजित पवार और उनके समर्थकों को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का नाम और उसका घड़ी का चुनाव चिन्ह देने के लिए विस्तार से अपने कारण बताए। शरद पवार और उनके वफादारों को नए नाम के साथ राज्यसभा चुनाव लड़ने की इजाजत मिल गई है. यदि ईसीआई अपने तर्क में इतना श्रमसाध्य नहीं होता – यह स्पष्ट करते हुए कि तीन लागू परीक्षणों में से केवल संख्यात्मक शक्ति को ही लागू किया जा सकता है – तो ऐसा लग सकता था कि महाराष्ट्र में एक पैटर्न देखा जा सकता था। इससे पहले, ईसीआई ने फैसला सुनाया था कि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाला शिवसेना गुट ही ‘असली’ शिवसेना है और वह पार्टी के चुनाव चिन्ह का हकदार है। श्री शिंदे ने उद्धव ठाकरे के स्थान पर मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली, जिन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह खो दिया था क्योंकि उन्होंने शक्ति परीक्षण का इंतजार किए बिना पद छोड़ दिया था। अब श्री अजित पवार उपमुख्यमंत्री हैं, उन्होंने चुनाव आयोग के फैसले से बहुत पहले शपथ ली थी, और उनकी ‘असली’ एनसीपी, ‘असली’ शिवसेना की तरह, श्री ठाकरे और श्री शरद पवार की पार्टियों के विपरीत, भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी है। . पैटर्न की धारणा संभवतः एक संयोग है, क्योंकि ईसीआई के कारण स्पष्ट हैं।


    लेकिन कोई भी कानून या प्रथा लाभ के लिए दलबदल को स्वीकार्य नहीं बना सकती; यह न केवल नैतिकता बल्कि लोकतंत्र की वास्तविकता को नष्ट कर देगा। दल-बदल विरोधी कानून दल-बदल करने वाले विधायकों को अयोग्यता से छूट देता है यदि वे पार्टी के दो-तिहाई सदस्यों की सहमति से किसी अन्य पार्टी में विलय करते हैं। आजकल ‘दलबदलू’ शब्द ‘विद्रोही’ से कम लोकप्रिय लगता है। विद्रोहियों को रोमांटिक स्नेह का आनंद लेना चाहिए, क्योंकि किसी अन्य पार्टी के साथ विलय की शर्त स्पष्ट रूप से अब लागू नहीं है। चूंकि दोनों गुटों को रखरखाव के तीन परीक्षणों में से दो में दोषपूर्ण पाया गया था, दोनों ही पार्टी संविधान से संबंधित थे, ईसीआई ने कहा कि केवल संगठनात्मक बहुमत का परीक्षण प्रासंगिक था। शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा के मतदाता और आम तौर पर मतदाता यह समझना चाह सकते हैं कि क्या खामियों ने दल-बदल विरोधी कानून के प्रासंगिक खंड को अनावश्यक बना दिया है। यदि ‘विद्रोहियों’ के पास संख्यात्मक बहुमत है तो क्या धन या सत्ता हासिल करने के लिए दल बदलना स्वीकार्य है? क्या तकनीकी पहलुओं का आकलन करना ईसीआई का काम है? ऐसा लगता है कि ईसीआई की जिम्मेदारी मूल एनसीपी की कथित खामियों जितनी ही भ्रामक हो गई है; इसमें लोकतंत्र की रक्षा करने वाली एक स्वतंत्र संस्था को पहचानना अब आसान नहीं है। 
     

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  • पर्यटकों के लिए नुकसान

    09-Feb-2024

    कांगड़ा के बीर बिलिंग में 9,000 फीट की ऊंचाई पर कड़कड़ाती ठंड में मृत पाए गए दो युवा पर्यटकों की कहानी दिल दहला देने वाली है। यह उन पर्यटकों में से एक का पालतू कुत्ता था, जो जंगली जानवरों से बचता था और उसके लगातार भौंकने से सतर्क होकर पुलिस के आने से पहले दो दिनों तक शवों की रक्षा करता था। इस दुर्भाग्यपूर्ण मामले से अधिकारियों को हिमाचल प्रदेश में पर्यटक सुरक्षा नियमों के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के लिए झटका लगना चाहिए।


    राज्य में जंगली भालू और तेंदुओं के हमले अनसुने नहीं हैं। भले ही छुट्टियों पर जाने वालों को सभी सावधानियां बरतने और एकांत पहाड़ियों या गुफाओं वाली घाटियों से घिरे जंगलों में अकेले न जाने की सलाह दी जाती है, फिर भी अधिकारियों को छुट्टियों पर जाने वालों की सुरक्षा बढ़ाने के उपायों में सुधार करने की जरूरत है, जिसमें चेतावनी बोर्ड लगाना और खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ाना शामिल है। सावधानी बरतते हुए। पर्यटन उद्योग को यह सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रयास करने चाहिए कि होटल व्यवसायी, ट्रैवल एजेंट और साहसिक गतिविधियों के आयोजक कड़े मानदंडों से समझौता न करें।


    सर्दियों के मौसम में कोई भी चूक विशेष रूप से खतरनाक होती है, जब पर्यटकों की संख्या बढ़ जाती है और दिशानिर्देशों के ढीले कार्यान्वयन के कारण दुर्घटनाओं की संभावना बढ़ जाती है। प्रथम दृष्टया, ऐसा प्रतीत होता है कि बीर बिलिंग मामले में दो दोस्त – एक पठानकोट से और दूसरा पुणे से – बर्फ से ढकी ढलान से गहरी खाई में गिर गए। राज्य की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का महत्वपूर्ण योगदान है। सरकार ने इस क्षेत्र को विकसित करने के लिए एशियाई विकास बैंक की सहायता से 2,500 करोड़ रुपये खर्च करने का निर्णय लिया है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि अचूक सुरक्षा प्रावधान मौजूद हैं, धन का एक उचित अनुपात निर्धारित किया जाना चाहिए।

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  • सम्पूर्ण जीर्णोद्धार की राह पर कांग्रेस

    04-Feb-2024

    स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पार्टी इन दिनों एक साथ कई मोर्चों पर संघर्षरत है। सत्ता का विपक्ष के प्रति ‘दुश्मनों’ जैसा व्यवहार जहाँ कांग्रेस व कांग्रेस नेताओं के लिये चुनौती बना हुआ है वहीं कांग्रेस अपनी पार्टी में ही पल रहे ‘आस्तीन के साँपों ‘ से भी जूझ रही है। अनेक अवसरवादी नेता समय समय पर किसी न किसी बहाने से न केवल कांग्रेस छोड़कर बल्कि कांग्रेस की राजनैतिक विचारधारा को भी त्याग कर धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण में अपना योगदान देने के बजाय साम्प्रदायिकता की डुगडुगी पीटने में लगे हैं। अनेक भ्रष्ट कांग्रेसी नेता भी पार्टी छोड़कर भयवश सत्ता की आग़ोश में जा बैठे हैं और किसी जांच एजेंसी का सामना करने के बजाये सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि नवगठित I. N. D. I. A गठबंधन के कई क्षेत्रीय घटक दल भी सीट शेयरिंग को लेकर कांग्रेस को कमतर आंकने की कोशिश कर रहे हैं। गोया ऐसे वक़्त में जबकि I. N. D. I. A गठबंधन को एकजुट व मज़बूत होने का सन्देश देना चाहिये ऐसे वक़्त में कई विपक्षी क्षेत्रीय दल भी कांग्रेस का ही हौसला पस्त करने में लगे हैं।




    उधर इन्हीं विषम परिस्थितियों में राहुल गांधी मणिपुर से मुंबई तक की लगभग 6,700 किलोमीटर की भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकल चुके हैं। इस यात्रा की शुरुआत में ही I. N. D. I. A गठबंधन के प्रारंभिक सूत्रधार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ ‘खेला ‘ हो गया और वे अपने पुराने केंचुल में जा बसे। असम में न्याय यात्रा को राज्य सरकार का क़दम क़दम पर तरह तरह का विरोध सहना पड़ा। कहीं यात्रा के इजाज़त नहीं मिली तो कहीं पुलिस में राहुल के विरुद्ध एफ़ आई आर दर्ज हुई। यहाँ तक कि बंगाल में जहाँ भारत जोड़ो न्याय यात्रा को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सहयोग व समर्थन मिलना चाहिये वहां भी वीरभूमि और मुर्शिदाबाद जैसे ज़िलों में परीक्षा के बहाने यात्रा की अनुमति नहीं दी गयी। सीट शेयरिंग के नाम पर भी ममता बनर्जी अपना स्टैंड लगभग साफ़ कर चुकी हैं कि वे बंगाल की सभी 42 लोकसभा सीटों पर अकेले ही चुनाव लड़ेंगी। इसके पहले ममता ने कांग्रेस को मात्र दो सीटों देने का प्रस्ताव किया था जो कांग्रेस ने नामंज़ूर कर दिया है। इतना ही नहीं बल्कि ममता ही यह भी कह चुकी हैं कि कांग्रेस यदि 300 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ती है तो इनमें से 40 सीटें भी नहीं जीत सकती। उत्तरप्रदेश में भी कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी से 20 सीटें मांगी थीं। परन्तु अखिलेश यादव ने कांग्रेस को केवल 11 सीटें देने की ही घोषणा की। अब ख़बर है कि कांग्रेस व सपा में 13 सीटों पर सहमति बन चुकी है। इसी तरह दिल्ली में तो आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस की सीट शेयरिंग की ख़बर है जिसके अनुसार कांग्रेस 4 पर जबकि आम आदमी पार्टी 3 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। परन्तु संभवतः पंजाब में इन्हीं दोनों दलों में सीट शेयरिंग न हो सके और दोनों दल आमने सामने चुनाव लड़ें। आम आदमी पार्टी तो हरियाणा, असम, गुजरात और गोवा में भी कांग्रेस से सीटें मांग रही है।


    परन्तु इन सबसे इतर असम हो या बंगाल या बिहार अथवा झारखण्ड जहाँ से भी राहुल गाँधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो न्याय यात्रा गुज़र रही है लगभग हर जगह कांग्रेस पार्टी को भारी जनसमर्थन हासिल हो रहा है। कहीं कहीं तो जनसभाओं में लाखों की भीड़ इकट्ठी होकर राहुल गाँधी व कांग्रेस नेताओं की बातों को सुन रही है। परन्तु चाटुकार गोदी मीडिया ने राहुल गाँधी के नेतृत्व में चल रही इस भारत जोड़ो न्याय यात्रा को पूरी तरह ब्लैक आउट कर रखा है। गोदी मीडिया को इंडिया गठबंधन में किसी तरह की मनमुटाव की ख़बरों को तो मिर्च मसाला लगाकर परोसने में ख़ूब मज़ा आता है परन्तु उसे राहुल गाँधी के नेतृत्व में चल रही भारत जोड़ो न्याय यात्रा में उमड़ती भीड़ व उसकी सफलता नज़र नहीं आती। इससे पहले भी जब राहुल ने 7 सितम्बर 2022 को कन्याकुमारी से कश्मीर के लिये यात्रा निकली थी तब भी गोदी मीडिया ने कोई तवज्जोह नहीं दिया था।
    I. N. D. I. A गठबंधन में अनेक सहयोगी दलों के नख़रे,सत्ता का दबाव और साथ ही कांग्रेसी ‘विभीषणों ‘ का सामना और इसी बीच भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान ही राहुल गाँधी का कांग्रेस द्वारा अपनाए गए सिद्धांतों की रक्षा करने की प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुये यह कहना कि- ‘मैं चाहता हूं कि हिमंत बिस्वा सरमा और मिलिंद देवड़ा जैसे लोग कांग्रेस से चले जाएं, मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं। हिमंत एक विशेष प्रकार की राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह कांग्रेस पार्टी की राजनीति नहीं है। लिहाज़ा ऐसे नेताओं को पार्टी से अलग हो जाना चाहिए, क्योंकि वे इसकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं।’ तमाम नेताओं द्वारा कांग्रेस पार्टी छोड़कर जाने के दौरान ही राहुल का ‘अवसरवादियों ‘ को दिया जाने वाला स्पष्ट सन्देश अत्यंत महत्वपूर्ण है। कांग्रेस को बचने के लिये राहुल को जिस दौर में थाली के बैंगनों की मान मनौव्वल की कोशिश करनी चाहिये उन्हें राहुल का पार्टी छोड़कर जाने का सीधा सन्देश देने का अर्थ है कि कांग्रेस और नेहरू गाँधी परिवार दोनों ही कांग्रेस की मूल गांधीवादी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का पालन करने के लिये प्रतिबद्ध है। ऐसे में वह ज़मीर फ़रोश नेता जिनकी कोई वैचारिक रीढ़ नहीं बल्कि उन्हें सिर्फ़ सत्ता प्यारी है, उनके लिये कांग्रेस ने बाहर जाने के रास्ते खुले रखे हैं।

    ममता बनर्जी हों या अखिलेश यादव इन्हें अपनी क्षेत्रीय राजनीति में मज़बूत पकड़ पर तो गर्व हो सकता है परन्तु कन्याकुमारी से कश्मीर तक और अब मणिपुर से मुंबई तक जिसतरह कांग्रेस ने भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान सड़कों पर उतर कर अपना जनाधार प्रदर्शित किया है कोई भी क्षेत्रीय दल तो क्या सत्तारूढ़ भाजपा भी नहीं कर सकती। वर्तमान समय में सत्ता के अनेक हथकंडों से आहत विपक्ष ख़ासकर कांग्रेस के लिये, देश में गांधीवादी मूल्यों की रक्षा की ख़ातिर I. N. D. I. A गठबंधन को एकजुट रखना व सीट बंटवारे जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गठबंधन में सहमति बनाना बेशक वर्तमान समय में कांग्रेस की मजबूरी है। परन्तु हक़ीक़त यही है कि राष्ट्रीय स्तर पर केवल कांग्रेस पार्टी ही क्षेत्रीय धर्मनिरपेक्ष दलों को साथ लेकर राष्ट्रीय स्तर पर साम्प्रदायिक शक्तियों का मुक़ाबला कर सकती है। शायद भविष्य की इन्हीं तैयारियों व हौसलों के साथ कांग्रेस पार्टी इस समय सम्पूर्ण जीर्णोद्धार की राह पर चल रही है।

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  • मानव चेतना को एआई के साथ जोड़ने के न्यूरालिंक के मिशन पर संपादकीय

    04-Feb-2024

    बायोनिक मैन अब विज्ञान कथा के क्षेत्र में केवल एक पात्र नहीं रह गया है। टेक अरबपति एलन मस्क के स्वामित्व वाली न्यूरोटेक्नोलॉजी कंपनी न्यूरालिंक ने पहली बार किसी इंसान में अपने मस्तिष्क-कंप्यूटर-इंटरफ़ेस चिप को प्रत्यारोपित किया। न्यूरालिंक का मिशन, यह दावा करता है, दो गुना है: मस्तिष्क से संबंधित शारीरिक विकारों का इलाज करना और अंततः, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के साथ मानव चेतना को जोड़ना। बीसीआई मस्तिष्क की गतिविधि को रिकॉर्ड और डिकोड कर सकता है, जिसका उद्देश्य गंभीर पक्षाघात से पीड़ित व्यक्ति को अकेले विचार के माध्यम से कंप्यूटर, रोबोटिक बांह, व्हीलचेयर या अन्य उपकरणों को नियंत्रित करने की अनुमति देना है। न्यूरालिंक के दावे साहसी हैं और क्रांतिकारी वादे करते हैं, लेकिन जैसा कि श्री मस्क की खासियत है, जब ठोस सबूत पेश करने की बात आती है तो वे भी अस्पष्टता में डूबे रहते हैं। अब तक, न्यूरालिंक केवल एक ही काम कर पाया है, वह है 1970 के दशक में उभरी तकनीक पर निर्माण करना और कुछ प्राइमेट्स को मांसपेशियों को हिलाए बिना प्राथमिक वीडियो गेम खेलना। यह एक संक्षिप्त यूट्यूब क्लिप में आकर्षक लग सकता है – सफलता का एकमात्र सबूत जो न्यूरालिंक ने प्रदान किया है – लेकिन यह सुरक्षा और संभावित स्वास्थ्य खतरों जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में बहुत कम कहता है।


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  • नीतीश कुमार के गिरगिट जैसे कौशल और एक दशक में पांचवीं कलाबाज़ी पर संपादकीय

    30-Jan-2024

    पाटलिपुत्र के पलटीपुत्र – नीतीश कुमार के गिरगिट जैसे कौशल ने उन्हें इस तरह के विशेषणों के लिए एक योग्य उम्मीदवार बना दिया है – ने इसे फिर से किया है: बाड़ कूद गया और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के गले लग गया। एक दशक में पांचवीं बार करतब दिखाने के बाद वह नौवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं, भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर उन्हें आगे बढ़ाने की इच्छुक है। यह अमित शाह के ‘दृढ़’ बयान के बावजूद है कि श्री कुमार के लिए एनडीए के दरवाजे बंद हो गए हैं। श्री कुमार ने अपनी ओर से कहा था कि वह भाजपा में लौटने के बजाय मरना पसंद करेंगे। बिहार महागठबंधन के साथ अपने कार्यकाल के दौरान, श्री कुमार ने भाजपा के खिलाफ कई विरोधी नारे लगाए। विवेक के विपरीत प्रतिज्ञाएँ, राजनीति में बहुत कम मायने रखती हैं; लेकिन श्री कुमार का चुनावी स्थानों में नवीनतम परिवर्तन ठोस राजनीतिक बुद्धिमत्ता का उदाहरण नहीं हो सकता है। ऐसी फुसफुसाहट है कि विपक्ष के भारतीय गुट के भीतर श्री कुमार की विफल महत्वाकांक्षाओं ने उनके हृदय परिवर्तन को प्रेरित किया, लेकिन यह भाजपा है, न कि श्री कुमार या उनका जनता दल (यूनाइटेड), जिसे इस सौदे से सबसे अधिक लाभ होने की संभावना है। श्री कुमार के साथ – उनके पंख और भी कतर गए – जीतन राम मांझी और चिराग पासवान के साथ, भाजपा – कई राजनीतिक ऑर्केस्ट्रा की मास्टर – एक इंद्रधनुषी जातीय गठबंधन बनाने और लोक में बिहार के चुनावी नतीजों पर हावी होने की उम्मीद कर रही होगी। सभा चुनाव. विडंबना यह है कि श्री कुमार का मुख्यमंत्री पद अब पूरी तरह से भाजपा की सनक पर निर्भर है, श्री कुमार को भारत में जो गुंजाइश मिल सकती थी वह एनडीए में नहीं रह जाएगी, जिससे उनका राजनीतिक दबदबा और कम हो जाएगा। श्री कुमार की अवसरवादिता का उनकी पार्टी पर पहले से ही हानिकारक प्रभाव पड़ा है, जो पिछले विधानसभा चुनावों में बिहार में तीसरी ताकत बनकर रह गई थी। यह संभव है कि बिहार में जद (यू) का राजनीतिक प्रभाव हल्का हो जाएगा – यहां तक कि वह एनडीए के प्रदर्शन की भी आलोचना कर सकते हैं।

     
    निःसंदेह, श्री कुमार के जाने से भारत को झटका लगा है, विशेषकर धारणा युद्ध में। लेकिन विपत्ति अक्सर अवसर की खिड़की प्रस्तुत करती है। राष्ट्रीय जनता दल, वह पार्टी जिसने 2020 में सबसे अधिक सीटें जीतीं, जो अब श्री कुमार नामक बोझ से मुक्त है, बिहार में विपक्ष की ओर से मोर्चा संभाल सकती है, जो यादव-मुस्लिम वोट बैंकों से परे अपनी पहुंच बढ़ाने का प्रयास कर रही है। . ममता बनर्जी, जो भारत के प्रति श्री कुमार की प्रतिबद्धता के बारे में सतर्क थीं, बहुत निराश नहीं हो सकती हैं: उनके पास अब गठबंधन के भीतर एक बड़ी भूमिका के लिए सौदेबाजी करने का अवसर है, जो श्री कुमार की हरकतों के बाद, रैंकों को बंद करना चाहेगी। यही समय की मांग है.

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  • लंका का कानून राजनीतिक असहमति को अपराध घोषित करना चाहता

    30-Jan-2024

    श्रीलंका के राजपक्षे अपनी अंकुश और नियंत्रण रणनीति के लिए जाने जाते थे। जनसंख्या को नियंत्रण में रखने के लिए उनके राजनीतिक शस्त्रागार में कई उपकरण थे। महिंदा राजपक्षे के 10 साल के शासन के दौरान, द्वीप का मानवाधिकार रिकॉर्ड एक राष्ट्रीय शर्मिंदगी था।

     
    उनके भाई गोटबाया, जो उस समय शक्तिशाली रक्षा सचिव थे, ने कसम खाई थी कि उनके कार्यकाल के दौरान श्रीलंका में सूचना का अधिकार कानून नहीं बनेगा। उन्होंने अपनी बात रखी. 2015 में महिंदा राजपक्षे की अप्रत्याशित हार के बाद ही आरटीआई कानून बनाया गया था। मूल रूप से बहुसंख्यकवादी, कम से कम वे राजनीतिक उदारवादी होने का दिखावा नहीं करते थे जो मानवाधिकारों के पश्चिमी उपदेशों की कम परवाह नहीं कर सकते थे। उन्होंने इस तरह शासन किया जैसे कि जब तक चीन उनके साथ खड़ा था, तब तक विश्व जनमत एक हल्की चिड़चिड़ाहट थी।
     
     
    हंबनटोटा शासक कबीले की पंथ पूजा 2022 से ठीक हो सकती है, और आज, राजपक्षे अत्यधिक अलोकप्रिय हैं और वर्तमान आर्थिक संकट के लिए दोषी हैं। प्रतिस्थापन राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने महत्वपूर्ण क्षण में श्रीलंका के साथ खड़े होने के लिए बहुपक्षीय ऋण देने वाली एजेंसियों को आश्वस्त करने के लिए काम किया है और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से बेलआउट प्राप्त किया है। अफसोस की बात है, (हालांकि आश्चर्य की बात नहीं है), इस स्व-घोषित राजनीतिक उदारवादी ने राजपक्षे द्वारा हस्ताक्षरित एक परिचालन शैली अपनाई है। वह असहमति को नियंत्रित करने के लिए तेजी से और निश्चित रूप से आगे बढ़े हैं, पहले ऑफ़लाइन, इसे कानून और व्यवस्था को बहाल करने की आवश्यकता बताते हुए, और अब ऑनलाइन स्थान को नियंत्रित करने के लिए।
     
    यह विक्रमसिंघे ही थे जिन्होंने मैत्रीपाला सिरिसेना प्रशासन में प्रधान मंत्री के रूप में आरटीआई कानून को आगे बढ़ाया था। फिर भी उन्होंने ऑनलाइन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने के लिए एक कठोर कानून को आगे बढ़ाने में कोई समय बर्बाद नहीं किया, ऑनलाइन सुरक्षा विधेयक (ओएसबी) को 25 जनवरी को भारी बहुमत के साथ संसद में पेश किया गया। एक दिन बाद, 26 जनवरी को, उन्होंने संसद को दो सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया, जिससे कोई भी कार्रवाई विफल हो गई। विवादास्पद बिल पर आगे की चर्चा।

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  • उल्फ़ा द्वारा केंद्र और असम सरकार के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने पर संपादकीय

    02-Jan-2024

    यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम के गुट, जो बातचीत के लिए उत्तरदायी था, केंद्र और असम की राज्य सरकार के बीच त्रिपक्षीय समझौता एक स्वागत योग्य विकास है। समझौते के हिस्से के रूप में, इस गुट से संबंधित कर्मियों को भंग कर दिया जाएगा; उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे हिंसा छोड़ दें और खुद को लोकतांत्रिक मुख्यधारा में पुनर्वासित करें। यह समामेलन विकास में निवेश के साथ-साथ स्वदेशी समुदायों की चिंताओं को दूर करने की राज्य की इच्छा पर निर्भर होगा: अविभाजित उल्फा का प्रभुत्व असम के स्वदेशी समुदायों, खासकर ग्रामीण इलाकों में गहरी चिंताओं का परिणाम था। भारतीय जनता पार्टी उम्मीद कर रही है कि यह समझौता पूर्वोत्तर के बाकी अशांत इलाकों, खासकर नागालैंड में शांति निर्माण प्रक्रिया को गति देगा। यह भाजपा और उत्तर-पूर्व डेमोक्रेटिक गठबंधन, क्षेत्र में प्रमुख गठबंधन, को चुनावी वर्ष में आवश्यक राजनीतिक पूंजी भी देगा।

     
    हालाँकि, समझौते के ऐतिहासिक होने के सभी दावों के लिए, यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह स्थायी शांति प्राप्त करने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन उसकी परिणति नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि टिकाऊ शांति तब तक संभव नहीं होगी जब तक परेश बरुआ के नेतृत्व वाले समूह, उल्फा (स्वतंत्र) को बातचीत की मेज पर नहीं लाया जा सकता। यद्यपि उल्फा (आई), जो एक बहुत ही क्षीण शक्ति है, जो शांति वार्ता का विरोधी रहा है, हिंसा में शामिल होने की क्षमता रखता है। श्री बरुआ, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे म्यांमार में छिपे हुए हैं, ने कहा है कि यदि संप्रभुता – एक पेचीदा क्षेत्र – से संबंधित मुद्दों पर चर्चा की जाती है तो उनका गुट बातचीत के लिए तैयार होगा। श्री बरुआ के बचे हुए पंखों को काटने के लिए भारत को अपने पूर्वोत्तर पड़ोसियों के साथ अपने राजनयिक शस्त्रागार में डुबकी लगानी होगी। अतीत में, भूटान और बांग्लादेश ने उल्फा की कमर तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नई दिल्ली को म्यांमार को मनाने के लिए आगे बढ़ना चाहिए, जो अपने ही विद्रोह से जूझ रहा है, ताकि श्री बरुआ की मदद की जा सके। इस प्रकार नरेंद्र मोदी सरकार के लिए भारत की उत्तरपूर्वी सीमा पर देशों के प्रति अपनी पहुंच में अधिक ऊर्जा लगाने का मामला है ताकि उसे उल्फा के कट्टरपंथी विंग के साथ नई दिल्ली की भागीदारी पर लाभ मिल सके। प्रधानमंत्री की एक्ट ईस्ट नीति इस संबंध में अपने क्षितिज को व्यापक बनाने में मदद कर सकती है। अन्यथा, यह नवीनतम शांति समझौता आधा-अधूरा काम बनकर रह जाएगा।

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  • अंतरिक्ष में और भी गहराई तक

    02-Jan-2024

    अपने ऐतिहासिक चंद्रयान-3 मिशन के साथ 2023 में चंद्रमा पर विजय प्राप्त करने के बाद, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने पीएसएलवी-सी58 रॉकेट के सफल प्रक्षेपण के साथ अंतरिक्ष में एक और रोमांचक यात्रा के साथ नए साल की शुरुआत की है, जो 11 उपग्रहों को ले जा रहा है। सावधानीपूर्वक योजना की बदौलत, PSLV ने एक्स-रे पोलारिमीटर सैटेलाइट (XPoSat) को 21 मिनट बाद कक्षा में स्थापित किया। यह उपग्रह आकाशीय पिंडों द्वारा उत्सर्जित एक्स-रे की गहराई में जाकर ब्लैक होल के रहस्यों को उजागर करने के लिए तैयार है। नवीनतम ब्रह्मांडीय अन्वेषण अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत की स्थिति को मजबूत करता है, जिस पर अमेरिका, चीन और रूस का प्रभुत्व है।

     
    एक बार फिर, आश्चर्यजनक रूप से, XPoSat की लागत 188 मिलियन डॉलर वाले NASA IXPE मिशन की तुलना में मात्र $30 मिलियन (250 करोड़ रुपये) है, जो 2021 से अंतरिक्ष में समान प्रयास पर है। इसके अलावा, XPoSat की अपेक्षित जीवन अवधि तुलना में पांच वर्ष है। इसके अमेरिकी समकक्ष के पास दो साल हैं। हालाँकि, यह उपलब्धि इसरो के लिए कोई नई बात नहीं है; संगठन ने कम बजट में गुणवत्तापूर्ण रॉकेट और उपग्रह बनाने की अपनी क्षमता से दुनिया को बार-बार आश्चर्यचकित किया है।
     
     
    यह लागत-प्रभावशीलता गेम-चेंजर हो सकती है क्योंकि भारत अंतरिक्ष क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोल रहा है। उपग्रह-निर्माण का व्यवसाय आसमान छू रहा है, कई घरेलू स्टार्टअप बड़ी संभावनाएं दिखा रहे हैं क्योंकि उन्होंने विदेशी कंपनियों के साथ गठजोड़ किया है। इसरो प्रमुख एस सोमनाथ की सिफारिश में दम है कि इस क्षेत्र में नियमों को आसान बनाया जाए ताकि अंतरिक्ष विज्ञान के विकास में वृद्धि हो सके और अंततः भारत उपग्रह-निर्माण का केंद्र बन सके।

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  • इसरो भारतीय अंतरिक्ष कंपनियों को चंद्रमा तक ले जा सकता

    30-Dec-2023

    भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम ने देश की कल्पना को जगाया है और अपनी कुछ हालिया उपलब्धियों से अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सम्मान हासिल किया है। सूची काफी लंबी है और चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के करीब उतरने से शुरू होती है। इस बीच, भारत के पहले मानव अंतरिक्ष मिशन गगनयान की तैयारी जोरों पर है और यह निश्चित रूप से युवाओं की एक पीढ़ी को विज्ञान और प्रौद्योगिकी में करियर बनाने के लिए उत्साहित और प्रेरित करेगा।

     
    चंद्रमा मिशन न केवल सफल टचडाउन के कारण रोमांचक था, बल्कि इसके द्वारा प्रदर्शित तकनीकी क्षमताओं के कारण भी रोमांचक था। मिशन ने अनियोजित प्रयोगों को संभाला जैसे कि लैंडर का प्रारंभिक टचडाउन बिंदु से कूदना – एक ऐसा पैंतरेबाज़ी जो भविष्य के मिशन की चंद्र सतह से फिर से लॉन्च करने की क्षमता के लिए आवश्यक हो सकती है। प्रणोदन मॉड्यूल को चंद्र से पृथ्वी की कक्षा में वापस लाया गया – भविष्य के लिए एक और महत्वपूर्ण क्षमता।
     
     
    यह सब भारत के अंतरिक्ष मिशनों के दायरे को बढ़ाने की दृष्टि का हिस्सा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष एस सोमनाथ ने हाल ही में सरकार के सामने एक रोडमैप पेश किया। इसमें 2028 तक एक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन मॉड्यूल और 2040 तक चंद्रमा की सतह पर एक चालक दल की लैंडिंग शामिल थी। इसके अलावा चंद्रयान 4, मंगलयान 2, एक वीनस ऑर्बिटर मिशन और नई प्रौद्योगिकियों और भारी लॉन्च वाहनों जैसे अनुवर्ती मिशनों की भी योजना बनाई जा रही है। इसका उद्देश्य पेलोड क्षमताओं को बढ़ाना और अंतरग्रहीय मिशनों से बेहतर वैज्ञानिक परिणाम प्राप्त करना है।
     
    सरकार के नेतृत्व वाली अंतरिक्ष गतिविधियों के दायरे से बाहर, भारत में अंतरिक्ष उद्यमिता में जबरदस्त रुचि देखी गई है – पिछले तीन वर्षों में अंतरिक्ष स्टार्ट-अप द्वारा 250 मिलियन डॉलर से अधिक की पूंजी जुटाई गई है। सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन और प्राधिकरण केंद्र या IN-SPACe बनाकर इसका जवाब दिया है, एक एजेंसी जो इसरो और गैर-सरकारी संस्थाओं के बीच इंटरफेस बनाएगी।

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  • कर्नाटक का आतंक

    18-Dec-2023

    “चलो XVII सदी में वापस जाएँ?” यह कर्नाटक के सुपीरियर ट्रिब्यूनल का व्यथित प्रश्न है, जब उन्हें उस चौंकाने वाली घटना के बारे में पता चला जिसमें एक महिला को निर्वस्त्र कर दिया गया, नग्न अवस्था में गांव (बेलगावी जिले में) में घुमाया गया और एक धारा में शामिल कर लिया गया। पोलो, हमारे देश में शर्मनाक स्थिति फिर से शुरू करें। क्या यह आपकी गलती है? उनका बेटा एक युवा दुल्हन के साथ भाग गया था, जिससे क्रोधित परिवार ने न्याय अपने हाथों में लेने और “तत्काल न्याय” के इस बर्बर तरीके को लागू करने का फैसला किया।


    अफसोस की बात यह है कि अधिकारियों ने भी गरीब महिला को न्याय दिलाने के समय लापरवाही बरती, जिससे कुछ सार्वजनिक अपमान हुआ। इसे ट्रिब्यूनल द्वारा अनुमोदित आलोचनाओं द्वारा रेखांकित किया गया था, जिसने इसे “असाधारण मामला” बताया था जिसके लिए “असाधारण उपचार” और “कठिन शब्दों” की आवश्यकता थी। ट्रिब्यूनल ने मामले में असंतोषजनक और कमजोर कार्रवाई के लिए पुलिस को हिरासत में लिया और आदेश दिया कि दोषियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाए। इसने यह भी आदेश दिया कि महिला को आर्थिक मुआवजा दिया जाए, उस समय यह इंगित किया गया था कि महिला आयोग ने अभी तक उसकी मदद के लिए हस्तक्षेप नहीं किया है।

    अफसोस की बात है कि यह कोई अकेला मामला नहीं है। इस वर्ष की शुरुआत में मणिपुर में जातीय संघर्षों के दौरान महिलाओं को निर्वस्त्र किया गया, उनका अपमान किया गया और उन्हें निर्वस्त्र किया गया; दिल्ली में एक महिला को पीटा गया, मुंडन किया गया और प्रदर्शन किया गया; और देवास (मध्य प्रदेश) में एक आदिवासी घर की एक महिला को उसके पति और ससुर सहित एक जनजाति द्वारा कथित विवाहेतर संबंध के लिए प्रताड़ित किया गया और उजागर किया गया। त्वरित और गारंटीकृत न्याय का वितरण संभावित अपराधियों में भय पैदा करने और उन्हें महिलाओं के खिलाफ अमानवीय कृत्य करने से रोकने में काफी हद तक योगदान दे सकता है। इसके विपरीत, जैसा कि कर्नाटक के उच्च न्यायालय ने कहा: “कानून का डर न होना बहुत, बहुत चिंताजनक है”।

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  • नमस्ते! क्या आप सभी ने हमास की निंदा की है?

    18-Dec-2023

    7 अक्टूबर, 2023 को दो महीने से अधिक समय हो गया है, जब हमास के रॉकेटों ने इज़राइल पर हमला किया था, जिसमें 1400 लोग मारे गए थे। इससे दुनिया सकते में आ गई और इजराइल पूरी तरह से बदला लेने की मुद्रा में आ गया। आतंकवाद की बुराइयां, अपने संगीत समारोहों और पार्टियों और नियमित जीवन का आनंद ले रहे निर्दोष इजरायली नागरिकों की पीड़ा, क्षेत्र की समस्याएं, फिलिस्तीनियों के अस्तित्व से उत्पन्न खतरा – इन पर पश्चिमी मीडिया में चर्चा की गई। “क्या आपने हमास की निंदा की है” वह नारा था जो लोकतांत्रिक पश्चिम के हॉलों में – सरकारों, विधायिकाओं, टीवी स्टूडियो में गूँज रहा था। हमास आतंकियों द्वारा 40 इजरायली बच्चों का सिर काटने की कहानी सामने आई। दुनिया भर में सदमा और भय स्पष्ट था। “क्या आपने हमास की निंदा की है” के नारे और अधिक तेज़ हो गए।


    तब से, 7 अक्टूबर को हमास द्वारा मारे गए इजरायलियों की संख्या – इजरायली द्वारा – कम होकर 200 हो गई है। अतिरिक्त 200 संभवतः इजरायली बलों द्वारा स्वयं मारे गए थे। शश. उसके बारे में एक शब्द भी नहीं. क्या आपने अभी तक हमास की निंदा की है? जहां तक उन बच्चों की बात है, तो वह भयानक रक्त-रंजित घटना, अफवाहों में गायब हो गई है और उसने कहा और उसने कहा। अगर यह सच होता तो कितना भयानक होता और बिना किसी प्रमाण की आवश्यकता के किसी भी तरह यह केवल “क्या आपने अभी तक हमास की निंदा की है” की चर्चा का विषय बन कर रह गया है। और उन शिशुओं की वास्तविकता बयानबाजी और झूठ में खो गई है। और तब से क्या हुआ है? गाजा में हजारों फिलिस्तीनियों को इजरायली सेना ने मार डाला है। उनमें से कम से कम 5000 बच्चे हैं। चूँकि “क्या आपने अभी तक हमास की निंदा की है” वाली कहावत अभी ख़त्म नहीं हुई है, कोई केवल यह अनुमान लगा सकता है कि 40 इज़राइली बच्चे 5000 फ़िलिस्तीनी बच्चों से अधिक के लायक हैं। मैं गणित में अच्छा नहीं हूं, इसलिए आप स्वयं अनुपात निकाल सकते हैं। अमीर और शक्तिशाली लोग हमास की निंदा करने में बहुत व्यस्त हैं।

    नई विश्व व्यवस्था, जैसा कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्रों – शुरू में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा – ने देखा है, वह यह है कि इज़राइल दुष्ट हमास से अपनी रक्षा के लिए जो चाहे कर सकता है, जिसकी हमेशा निंदा की जानी चाहिए। अकेले गाजा में केवल दो महीनों में लगभग 20000 फ़िलिस्तीनी मारे गए हैं, यह उन फ़िलिस्तीनियों की गलती है क्योंकि वे हमास के समान राष्ट्रीयता के हैं।

    यह दुनिया के अन्य देशों की गलती है जो चाहते हैं कि अत्याचार ख़त्म हों। वे भी हमास हैं. यह संयुक्त राष्ट्र और उसकी एजेंसियों की गलती है जिन्होंने फिलिस्तीनियों की मदद करने की कोशिश की है। वे भी हमास हैं. यह उन पत्रकारों की गलती है जिन्होंने हमले के तहत गाजा में फिलिस्तीनियों की दुर्दशा को कवर करने की कोशिश की है। वे भी हमास हैं. यह डॉक्टरों की गलती है जो घायलों और बीमारों का इलाज करने की कोशिश करते हैं। वे भी हमास हैं. यह पश्चिमी विश्वविद्यालयों के छात्रों की गलती है जो चाहते हैं कि फ़िलिस्तीन पर हमले रुकें। वे भी हमास हैं. यह यहूदियों की गलती है जो ज़ायोनीवाद में विश्वास नहीं करते और चाहते हैं कि फ़िलिस्तीनियों पर हमले रुकें। वे भी हमास हैं.

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  • शिक्षा सुधारों में व्यापकता एवं व्यावहारिकता जरूरी

    10-Dec-2023

    शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए शिक्षा तंत्र को समय-समय पर कड़े निर्णय लेने पड़ते हैं। जिस प्रकार लम्बे समय से ठहरा हुआ पानी अपनी स्वच्छता तथा गुणवत्ता को खोकर प्रदूषित हो जाता है, ठीक उसी प्रकार किसी भी क्षेत्र में गुणवत्ता के लिए व्यापक स्तर पर बुनियादी सुधार किए जाते हैं। यह बदलते समय के अनुरूप तथा नीति परिवर्तन के कारण अवश्य भी हो जाता है। राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के मानकों तथा व्यावहारिकता में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं, इसलिए आवश्यक हो जाता है कि उस क्षेत्र विशेष में कार्यरत व्यक्तियों, नीतियों तथा रीतियों में भी परिवर्तन हो। यह भी आवश्यक है कि प्रस्तावित बदलाव वास्तविक, व्यावहारिक तथा शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करते हों। प्रदेश के शिक्षा क्षेत्र में इस समय व्यापक रूप से परिवर्तन हो रहे हैं। शिक्षा क्षेत्र में बड़े बदलावों को सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक विद्यालय तथा महाविद्यालय को ‘डिवेलपमेंट प्लान’ अनिवार्य किया गया है। ‘मुख्यमंत्री एक्सीलेंस स्कूल’ तथा ‘कालेज ऑफ एक्सीलेंस’ बनाए जा रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा में निदेशालय, सचिवालय तथा शिक्षा मंत्रालय स्तर पर नियमित बैठकें आयोजित कर गम्भीर चिन्तन हो रहा है जिसका उद्देश्य केवल शिक्षा तंत्र को चुस्त-दुरुस्त कर गुणवत्ता के लक्ष्य को प्राप्त करना है। प्रदेश में पिछले कई वर्षों से शिक्षक स्थानांतरण नीति के क्रियान्वयन के लिए अनेक फैसले लिए गए, परंतु विडम्बना है कि कोई भी स्थानांतरण नीति अन्तिम रूप से घोषित होकर लागू नहीं हो पाई।


    जनजातीय क्षेत्रों, सब-काडर, हार्ड एरिया, निचले क्षेत्रों, ऊपरी क्षेत्रों तथा शहरी क्षेत्रों की परिभाषावली में उलझी यह ट्रांसफर पॉलिसी अब भी तकनीकी शब्दावली के मकडज़ाल में फंसी हुई है। अस्पष्ट तथा अघोषित ट्रांसफर पॉलिसी के चक्कर में अध्यापकों के स्थानांतरण का फैसला न्यायालय में होता है जहां मोटी धनराशि वकीलों को देनी पड़ती है। प्रभावशाली व्यक्ति हमेशा अपने राजनीतिक, प्रशासनिक प्रभाव का प्रयोग करता रहता है, आम व्यक्ति की नियमानुसार सुनवाई भी नहीं होती। सबसे बड़ी बात यह है कि राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों तथा समृद्ध एवं सम्पन्न व्यक्ति की अर्धांगिनी, बेटी, बेटा या नजदीकी मित्र रिश्तेदार राजधानी या जिला मुख्यालय छोड़ कर किसी भी दुर्गम क्षेत्र में कैसे जा सकते हैं। फिर अनेक प्रकार के सच्चे-झूठे प्रमाणपत्र, मेडिकल प्रमाणपत्र भी तो प्रस्तुत किए जाने की सुविधा उपलब्ध है, जिसे सत्यापित किए बिना मनमर्जी के प्रभावशाली व्यक्ति कहीं भी नौकरी कर सकता है। अगर ऐसा न हो तो भी राजनीतिक तथा सचिवालय स्तर पर कोई न कोई हल निकल जाता है या फिर न्यायालय में भी वकीलों के दांवपेंच इस दिशा में कारगर साबित होते हैं। समस्या यह है कि निश्चित नियमावली एवं स्थानांतरण पॉलिसी के अभाव या उसे लागू करने की मंशा न होने से लोगों को बेवजह निदेशालय, सचिवालय तथा न्यायालय के चक्कर लगा कर परेशान होना पड़ता है, जिससे बहुत सा धन तथा समय नष्ट होने के साथ मानसिक परेशानी का सामना करना पड़ता है। यह जगजाहिर सत्य है कि आज तक अनेकों अध्यापक अपना राजनीतिक तथा प्रशासनिक प्रभाव न होने के कारण जनजातीय क्षेत्रों में ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वर्तमान शिक्षा में व्यवस्था परिवर्तन के उद्देश्य से शिक्षकों को तीस किलोमीटर से बाहर स्थानांतरित करने की चर्चा चल रही है। आशा है कि बिना भेदभाव तथा पक्षपात से यह नीति प्रदेश में लागू होगी। अब प्रदेश के स्कूलों में पाठशाला प्रबंधन समिति तथा पाठशाला प्रशासन विद्यार्थियों की वर्दी अपनी पसन्द से चयनित करने के लिए स्वतन्त्र होगा। सरकार का यह निर्णय जहां स्वागत योग्य तथा फैसले लेने के लिए संस्थागत स्वायत्तता को बढ़ावा देता है वहीं पर संस्थान स्तर पर अपनी-अपनी इच्छा, पसन्द तथा मनमर्जी से सरकारी स्कूलों की वर्दी से अपनी पहचान की अवधारणा समाप्त हो सकती है। सरकारी पाठशालाओं के विद्यार्थियों की अपनी पहचान होती है जिस पर पुनर्विचार किया जा सकता है। इसी तरह विभाग में वार्षिक केलैंडर में स्पोट्र्स डेज कम करने तथा टीचर ट्रेनिंग प्रोग्राम छुट्टियों में आयोजित कर शैक्षिक कार्य दिवस बढ़ाने का विचार भी सराहनीय कदम होगा। इस बात पर भी विचार किया जा सकता है कि प्राथमिक तथा अंडर-14 खेलकूद तथा सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं क्लस्टर तथा खण्ड स्तर तक ही आयोजित होनी चाहिए।

    छोटे बच्चे अल्पावस्था में इतने सक्षम नहीं होते कि वे खेलकूद प्रतियोगिताओं के दौरान स्व-प्रबन्धन कर सकें। खेलकूद प्रतियोगिताओं में कई बार अध्यापकों तथा प्रबंधकों की ओर से लापरवाही की शिकायतें मीडिया तथा समाचारपत्रों में देखी गई हैं। कुछ दिन पहले विभाग ने पांच सौ मीटर के दायरे में सभी वरिष्ठ, उच्च, माध्यमिक तथा प्राथमिक पाठशालाओं को एक ही प्रधानाचार्य के अधीन कार्य करने, संसाधनों के उपयोग तथा अध्यापकों की कमी के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त शिक्षकों की सेवाओं का लाभ लेने का विचार बनाया है, जिसका प्राथमिक स्तर के अध्यापकों द्वारा विरोध शुरू हो चुका है। इस नवीन योजना के अनुसार आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित सभी पाठशालाओं की गतिविधियां एक ही स्थान पर आयोजित होने, टाईम टेबल को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए प्रारम्भ में कुछ परेशानियां अवश्य होंगी, लेकिन इससे संसाधनों का दुरुपयोग रुकेगा तथा उनका अधिक इस्तेमाल होगा। सरकार का यह निर्णय संस्थागत प्रशासन, अध्यापकों की कमी तथा शैक्षिक वातावरण की स्थापना तथा शिक्षा की गुणवत्ता के उद्देश्यों के लिए लाभप्रद रहेगा। इससे मानवीय तथा भौतिक संसाधनों को प्रभावी ढंग से उपयोग में लाया जा सकता है। लोकतंत्र में व्यक्तियों तथा संगठनों को अपने अधिकारों पर आवाज बुलंद करने तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रहती है, परन्तु प्रदेश के शिक्षा विभाग में अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित, गैर राजनीतिक शिक्षक संगठन तथा अराजपत्रित कर्मचारी, अनेकों संगठन अध्यापकों तथा कर्मचारियों के हितों के लिए आवाज उठाते हैं। अध्यापकों तथा कर्मचारी संगठनों के साथ शिक्षा प्रशासन को बातचीत कर विलय करवा कर इनकी संख्या कम करने का प्रयास करना चाहिए। प्रदेश में शिक्षा की नीतियों तथा गुणवत्ता के लिए सरकार की ओर से गम्भीर प्रयास किए जा रहे हैं। आवश्यकता है कि होने वाले परिवर्तन व्यावहारिक हों, भेदभाव एवं पक्षपात रहित होकर प्रभावी ढंग से लागू हों, लोकतांत्रिक प्रक्रिया से लिए गए निर्णय सामूहिक तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अनुरूप हों।

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  • बुनियादी सेवाएँ नागरिक का अधिकार हैं या सरकार का उपहार?

    10-Dec-2023

    क्या बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच को नागरिकों के “अधिकार” के रूप में माना जाना चाहिए या एक उदार नेता की उदारता के हिस्से के रूप में? अगर लोगों को फ़ायदा हो तो क्या शर्तें मायने रखती हैं? या क्या लाभार्थी होना स्वाभाविक रूप से लाभार्थी के प्रति संबंधपरक कमज़ोरी दर्शाता है? एक नागरिक को लाभार्थी से क्या अलग करता है?


    प्रश्न नये नहीं हैं. न ही बहस “नागरिक बनाम श्रमिक” टेम्पलेट के आसपास है।

    इसे अभी नया जीवन मिला है, और यह नरेंद्र मोदी सरकार के कल्याण एजेंडे के केंद्र में जाता है, जिसे व्यापक रूप से भाजपा की चुनावी सफलता और मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में इसकी हालिया प्रचंड जीत के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जाता है।

    शब्द “लाभार्थी” (लाभार्थी) अब देश की राजनीतिक शब्दावली का हिस्सा है और सत्तारूढ़ भाजपा के लिए चर्चा का विषय है। इस साल फरवरी में, भाजपा की महिला मोर्चा ने इस बात पर ध्यान आकर्षित करने के लिए अपना “एक करोड़ सेल्फी” अभियान शुरू किया कि कैसे नरेंद्र मोदी सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं ने “महिला लाभार्थियों” की मदद की है। इसे “अब तक का सबसे बड़ा लाभार्थी आउटरीच कार्यक्रम” का नाम दिया गया था।

    सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी यामिनी अय्यर और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु जैसे कई सार्वजनिक नीति विशेषज्ञों ने भारत के उभरते कल्याणकारी राज्य और “नागरिक बनाम श्रमिक” टेम्पलेट के बारे में विस्तार से लिखा है।

    अभिषेक आनंद, विकास डिंबले और अरविंद सुब्रमण्यम की दिसंबर 2020 की एक टिप्पणी में कहा गया था कि: “नरेंद्र मोदी सरकार का नया कल्याणवाद पुनर्वितरण और समावेशन के लिए एक बहुत ही विशिष्ट दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है। यह बुनियादी स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक वस्तुओं की आपूर्ति को प्राथमिकता नहीं देता है और प्राथमिक शिक्षा जैसा कि सरकारों ने ऐतिहासिक रूप से दुनिया भर में किया है…” इसके बजाय, “इसमें आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के सब्सिडी वाले सार्वजनिक प्रावधान को शामिल किया गया है, जो आम तौर पर निजी क्षेत्र द्वारा प्रदान किया जाता है, जैसे कि बैंक खाते, रसोई गैस, शौचालय, बिजली, आवास, और हाल ही में पानी और सादा नकद।”

    अब लाखों महिलाओं के पास बैंक खाते हैं, बिजली और रसोई गैस तक पहुंच है। पूरे देश में शौचालय बनाए गए हैं, और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हाल ही में मुफ्त खाद्यान्न योजना – प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) को अगले पांच वर्षों के लिए बढ़ाने को मंजूरी दे दी है।

    यह भी कोई रहस्य नहीं है कि ब्रांड मोदी भाजपा की राजनीति और चुनावी रणनीति का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, और यह ब्रांडिंग कुछ हद तक कल्याणकारी लाभों के प्रदाता के रूप में प्रधान मंत्री की छवि के इर्द-गिर्द घूमती है। यह निश्चित रूप से 2024 के आम चुनाव तक भाजपा की रणनीति के केंद्र में रहेगा। हिंदुत्व के साथ।

    मोदी सरकार के कल्याण एजेंडे ने लाखों गरीब भारतीयों को कई आवश्यक चीजें प्रदान की हैं। हालाँकि, इस बारे में सवाल उठाए जा रहे हैं कि नागरिकों के लिए इन मूर्त आवश्यक चीज़ों को एक व्यक्तिगत नेता से उपहार के रूप में देखने का क्या मतलब है, और जरूरी नहीं कि लंबी अवधि में कानूनी ढांचे के हिस्से के रूप में। दिलचस्प बात यह है कि विपक्षी दलों ने भी नागरिक को “लाभार्थी” (लाभार्थियों का समूह) के रूप में अपनाने की कोशिश की है।

    भारत में हैंडआउट्स का इतिहास रहा है। इसका जन आंदोलनों, न्यायिक सक्रियता का भी इतिहास है जिसने नागरिकों को कानूनी सुरक्षा और जवाबदेही की मांग करने की शक्ति दी। याद रखें कि वर्तमान मुफ्त खाद्यान्न योजना एक कानूनी ढांचे से उपजी है और 2013 के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत एक पात्रता का हिस्सा है।

    सुहास पल्शिकर, एक प्रख्यात अकादमिक और सामाजिक और राजनीतिक वैज्ञानिक, इस प्रवृत्ति को नरेंद्र मोदी और भाजपा द्वारा शासन और कल्याण के एक पितृसत्तात्मक मॉडल को आकार देने के प्रयास के हिस्से के रूप में देखते हैं, जो अधिकारों या मांग से अलग है। उस संदर्भ में, मूर्त आवश्यक चीजें “उपहार या प्रसाद” बन जाती हैं, जैसा कि पल्शीकर कहते हैं। उनका तर्क है कि यह विचार हिंदुत्व कथा में फिट बैठता है जो सत्ता का प्रयोग करने की ऊपर से नीचे की शैली की अनुमति देता है।

    हम सभी उपहार पसंद करते हैं और आम तौर पर उन्हें कृतज्ञता के साथ स्वीकार करते हैं, लेकिन हम उपहार के हकदार नहीं हैं। इसके विपरीत, अगर हम स्वास्थ्य देखभाल, पोषण, बिजली, वित्तीय समावेशन, स्वच्छता आदि को बुनियादी अधिकारों के रूप में परिभाषित करते हैं, तो हम सवाल पूछने के हकदार होंगे।

    स्पष्ट रूप से, पितृसत्तात्मक शासन मॉडल अन्य कारकों के साथ संयुक्त होने पर देश के बड़े हिस्से में राजनीतिक रूप से काम करता है। मध्य प्रदेश में, जहां भाजपा ने निर्णायक जीत हासिल की, कहा जाता है कि एक प्रमुख कारक शिवराज सिंह चौहान की “लाडली बहना योजना” थी। 21 वर्ष से अधिक उम्र की अविवाहित महिलाओं को संबंधपरक शब्दों में “लाडली बहना” (प्यारी बहन) के रूप में वर्णित किया जाता है और उन्हें आर्थिक सहायता मिलती है। इसने काम किया।

    लेकिन तथ्य यह है कि हाल के वर्षों में बेटियों और बहनों के बारे में सभी उच्च-डेसीबल बयानबाजी के बावजूद, बहुत कम भारतीय महिलाओं के पास अपनी आय के स्रोत हैं। अक्टूबर में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट 2022-23 से पता चलता है कि देश में महिला श्रम बल भागीदारी दर में सुधार हुआ है लेकिन यह अभी भी केवल 37 प्रतिशत है।

    “2004 से गिरने या स्थिर होने के बाद, 2019 के बाद से महिला रोजगार दर में वृद्धि हुई है स्व-रोज़गार में संकट-प्रेरित वृद्धि। कोविड-19 से पहले, 50 प्रतिशत महिलाएं स्व-रोज़गार थीं। कोविड के बाद यह बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया। परिणामस्वरूप, इस अवधि में स्व-रोज़गार से होने वाली कमाई में वास्तविक रूप से गिरावट आई। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट “स्टेट ऑफ वर्किंग 2023” में कहा गया है कि 2020 के लॉकडाउन के दो साल बाद भी, स्व-रोज़गार की कमाई अप्रैल-जून 2019 तिमाही की तुलना में केवल 85 प्रतिशत थी।

    जैसे-जैसे हम 2024 और आम चुनाव के करीब पहुंच रहे हैं, हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या कल्याण कार्यक्रमों की राजनीतिक सफलता पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है – नए और पुन: पैकेज किए गए – अन्य प्रमुख मुद्दों, जैसे नौकरियों, शिक्षा, आदि पर आवश्यक बातचीत को कम नहीं किया जा रहा है। यदि आर्थिक विकास निचले पायदान पर मौजूद लोगों तक पहुंच रहा है तो हमें इतनी सारी कल्याणकारी योजनाओं की आवश्यकता क्यों है? हम निर्मित स्कूलों, नामांकन में वृद्धि के बारे में बात करते हैं, लेकिन देश की मूलभूत ताकत को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण सीखने के परिणामों पर क्यों नहीं? हम देश में स्कूलों की विशाल संख्या के बारे में बात करते हैं, लेकिन एक स्कूल भवन आवश्यक रूप से शिक्षा में महत्वपूर्ण प्रगति का सूचक नहीं है, जैसे शौचालयों का बड़े पैमाने पर निर्माण स्वचालित रूप से स्वच्छता में उच्च अंक की गारंटी नहीं देता है। जमीनी स्तर पर, भारत में दस लाख से अधिक शिक्षकों की कमी है। इसमें माध्यमिक स्तर पर उपलब्ध शिक्षकों के असमान वितरण और हाई स्कूल छोड़ने की दर की कठोर वास्तविकता को भी जोड़ें।

    आज, ऐसे मुद्दे उठाने वाले किसी भी व्यक्ति पर “नकारात्मकता” फैलाने का आरोप लगाया जा रहा है।

    28 वर्ष की औसत आयु वाले एक देश के रूप में, और जो एक विकसित राष्ट्र बनने की आकांक्षा रखता है, हम निराशाजनक शैक्षिक परिवर्तन, अपर्याप्त रोजगार सृजन और लैंगिक समानता की कमी से जुड़े सवालों से बच नहीं सकते। सफलता की कहानियों के बारे में आधिकारिक चर्चा के साथ-साथ बची हुई कमियों के बारे में गंभीर चर्चा भी होनी चाहिए।

    राज्य के आवश्यक कर्तव्यों और नागरिकों के अधिकारों के बारे में बात करना नकारात्मकता नहीं फैला रहा है। यह एक रियलिटी चेक प्रदान कर रहा है।

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  • गरीबी घटी, आय असमानता भी घटे

    27-Nov-2023

    ऐसे में गरीब एवं कमजोर वर्ग के युवाओं के लिए रोजगार के मौके जुटाने के लिए एक ओर सरकार के द्वारा डिजिटल शिक्षा के रास्ते में दिखाई दे रही कमियों को दूर करना होगा, वहीं दूसरी ओर कौशल प्रशिक्षण के साथ नए स्किल्स सीखने होंगे। इस बात पर भी ध्यान दिया जाना होगा कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज के साथ उनके जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने और उनके लिए रोजागर के अधिक अवसरों के लिए भी अधिक प्रयास करने होंगे। ऐसा होने पर ही गरीबी घटाने और आय में असमानता को कम करने में सफलता प्राप्त की जा सकेगी। फिलहाल गरीब और अमीर की आय में दिन-रात का अंतर है…

    हाल ही में केंद्र सरकार ने 80 करोड़ से अधिक पात्र लोगों को नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण की योजना आगामी पांच वर्षों यानी दिसंबर 2028 तक के लिए बढ़ा दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुताबिक गरीबों के सशक्तिकरण के लिए नि:शुल्क खाद्यान्न की जरूरत बनी हुई है। पिछले पांच वर्षों में 13 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं, ऐसे में पूरे देश के गरीब लोगों को गरीबी से बाहर निकालने की दिशा में देश आगे बढ़ रहा है। नि:संदेह मुफ्त खाद्यान्न योजना की जरूरत न केवल गरीबों के सशक्तिकरण के लिए, वरन आय असमानता घटाने के लिए आवश्यक बनी हुई है। इस परिप्रेक्ष्य में हाल ही में 6 नवंबर को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में गरीबी 2015-2016 के मुकाबले 2019-2021 के दौरान 25 फीसदी से घटकर 15 फीसदी आ गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि यद्यपि गरीबी निवारण अभियान से भारत में गरीबी घटी है, लेकिन अभी भी भारत में आय की असमानता बढ़ी हुई है। यह उल्लेखनीय है कि एशिया पेसेफिक ह्यूमन डेवलेपमेंट रिपोर्ट 2024 के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2000 में जहां करीब 37 हजार रुपए थी, वहीं वर्ष 2022 में बढक़र करीब 2 लाख रुपए हो गई है। गौरतलब है कि भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) 10 सितंबर 2013 को अधिसूचित हुआ है। इसका उद्देश्य नागरिकों की गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए वहनीय मूल्यों पर गुणवत्तापूर्ण खाद्यान्न की 5 किलोग्राम मात्रा उपलब्ध कराना है। ऐसे में इसके तहत राशन कार्डधारकों को चावल 3 रुपए, गेहूं 2 रुपए और मोटे अनाज 1 रुपए प्रति किलो वितरण की शुरुआत की गई।

    कोरोना महामारी के दौरान प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत मुफ्त अनाज दिए जाने की भी शुरुआत की। कई बार इसकी अवधि बढ़ाने के बाद सरकार ने एक जनवरी 2023 से दिसंबर 2023 तक एक वर्ष के लिए इस योजना को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत अनाज वितरण की योजना में मिलाने का निर्णय किया। सरकार ने चावल और गेहूं को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत क्रमश: तीन रुपए और दो रुपए प्रति किलो की दर से बेचने के बजाय मुफ्त कर दिया। अब वर्ष 2028 तक एक बार फिर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत आने वाली देश की दो-तिहाई आबादी को राशन प्रणाली के तहत मुफ्त में अनाज देने की भारत की पहल दुनिया भर में रेखांकित की जा रही है। यह कोई छोटी बात नहीं है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष सहित दुनिया के विभिन्न सामाजिक सुरक्षा के वैश्विक संगठनों के द्वारा भारत की खाद्य सुरक्षा की जोरदार सराहना की गई है। आईएमएफ के द्वारा पिछले दिनों प्रकाशित रिसर्च पेपर में कोविड की पहली लहर 2020-21 प्रभावों को भी अध्ययन में शामिल करते हुए कहा गया है कि सरकार के पीएमजीकेएवाई के तहत मुफ्त खाद्यान्न कार्यक्रम ने कोविड-19 की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के प्रभावों की गरीबों पर मार को कम करने में अहम भूमिका निभाई है और इससे अत्यधिक गरीबी में भी कमी आई है। आईएमएफ के कार्यपत्र में कहा गया है कि खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम कोविड-19 से प्रभावित वित्तीय वर्ष 2020-21 को छोडक़र अन्य वर्षों में गरीबी घटाने में सफल रहा है। दुनिया के अर्थ विशेषज्ञ यह कहते हुए दिखाई दे रहे हैं कि कोविड-19 के बीच भारत में खाद्यान्न के ऐतिहासिक स्तर पर पहुंचे सुरक्षित खाद्यान्न भंडारों के कारण ही देश के 80 करोड़ लोगों को लगातार मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध होने के कारण वे गरीबी के दलदल में फंसने से बच गए।

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  • गण और तंत्र के बीच फासला

    27-Nov-2023

    26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान को स्वीकृत किया गया था, इसी उपलक्ष्य में 26 नवंबर को भारतीय संविधान दिवस मनाया जाता है। संविधान की मर्यादा का ख्याल रखना भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए जरूरी है। लेकिन ऐसा करेगा कौन? राजनेताओं को कुर्सी का मोह है और आमजन को सरकारों से मुफ्त योजनाओं की सौगात चाहिए, अगर ऐसा नहीं होता तो न तो देश की राजनीति दागदार होती, न देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी होती, और न ही देश में कोई गरीब बच्चा शिक्षा से वंचित रहता, न कोई गरीब महंगे इलाज के कारण दम तोड़ता और न ही कोई दो वक्त की रोटी को तरसता। गण और तंत्र के बीच फासला बढ़ रहा है, इसे पाटने की जरूरत है।


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  • भविष्य में हमारा रास्ता पढ़ना

    26-Nov-2023

    हाल ही में मैंने जिस साहित्य उत्सव में भाग लिया, वहां एक प्रमुख लेखक ने युवा जनता को बहुमूल्य सलाह दी: पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो। मानसिक क्षितिज का विस्तार करने, ज्ञान और दृष्टिकोण प्राप्त करने और मौखिक अभिव्यक्ति में ताकत जोड़ने के लिए पढ़ना एक समय-परीक्षणित उपकरण रहा है। यह हममें से कई लोगों के लिए डिफ़ॉल्ट विकल्प था जो पिछले दशकों में बड़े हुए थे। उन दिनों, हमारे पास मनोरंजन के कई अन्य साधन नहीं थे: पढ़ना सबसे आम विसर्जन अनुभव था। लेकिन आज के युवाओं के लिए, विशेषकर शहरी युवाओं के लिए, जिनके पास कई सूचना और मनोरंजन प्लेटफार्मों तक पहुंच है, ऐसी किताब पढ़ना जो उनकी अध्ययन योजनाओं से संबंधित न हो, एक चुनौती हो सकती है। इस प्रकार, शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में पढ़ने की अनिवार्यता कठोर हो सकती है। इसके लिए अपने आप में कई घंटों की आवश्यकता होती है। जबकि अन्य प्रकार के पढ़ने के परिणामों को संतुष्टिदायक माना जा सकता है, मुझे लगता है कि यह संभावना नहीं है कि पढ़ना इस पीढ़ी के जीवन में प्राथमिकता बन जाएगा।


    जबकि बहुत अधिक विकर्षणों की उपस्थिति समाज के कुछ क्षेत्रों में पढ़ना कठिन बना देती है, वहीं कई अन्य, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, बुनियादी पढ़ने के संसाधनों तक पहुंच से वंचित हैं। हाल ही में, तमिलनाडु के पब्लिक स्कूलों ने छात्रों को कक्षा के बाहर पढ़ने और सीखने में रुचि बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए वासिप्पु इयक्कम (पढ़ने का आंदोलन) शुरू किया है।

    जब मैंने हाल ही में शूलागिरी नामक एक छोटे से गाँव में एक पब्लिक स्कूल का दौरा किया, तो इस नई परियोजना के लिए छात्रों का उत्साह स्पष्ट था। कई नेक इरादे वाले नागरिक इस उद्देश्य में पुस्तकों का योगदान देने के लिए एक साथ शामिल हुए। उन्होंने अपनी पसंदीदा पुस्तकों को देखते समय युवाओं की आँखों में चमक देखी, तब भी जब उन्हें समझना मुश्किल लग रहा था। लेकिन जैसा कि परियोजना में शामिल एक व्यक्ति ने बताया, किताबें दान करना ही काफी नहीं है, छात्रों को सलाह देना भी जरूरी है। छात्रों को, जिनमें से कई पहली पीढ़ी के छात्र थे, किताबों की इस नई और मूल्यवान दुनिया में जाने के लिए मार्गदर्शन करें और प्रोत्साहित करें, जिससे अंततः उन्हें लाभ होगा।

    युवाओं द्वारा किताबें पढ़ने के लिए दिए जाने वाले समय में उल्लेखनीय गिरावट को व्यापक रूप से प्रलेखित किया गया है। इसमें योगदान देने वाला सबसे बड़ा कारक खाली और असंरचित समय की कमी प्रतीत होता है। कम ध्यान अवधि जिसके लिए निरंतर दृश्य-श्रव्य इनपुट की आवश्यकता होती है, पढ़ने को कम आकर्षक बनाता है। सूचना और समाधान की तलाश में इंटरनेट पर नेविगेट करने के विकल्प ने “विस्थापन की संस्कृति” को जगह दे दी है। दूसरा तरीका यह है कि ऑनलाइन एक्सेस की गई सामग्री का एक बड़ा हिस्सा सतही ज्ञान का उत्पाद है और किसी विषय की गहरी समझ पैदा नहीं करता है। दूसरी ओर, किताब पढ़ना और दिमाग में एक छवि बनाना एक संज्ञानात्मक कार्य है जो समझ और व्याख्या की ओर ले जाता है। विचारों को नियोजित करना और उनसे प्रभावित होना एक ऐसी घटना हो सकती है जो जीवन बदल देती है। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी सविनय अवज्ञा पर हेनरी डेविड थोरो के निबंध से इतनी गहराई से प्रेरित थे कि इसने उनके जीवन और हमारे देश की नियति को बदल दिया। पढ़ने से एक ऐसी यात्रा निकल सकती है जो कई दरवाजे खोलती है।

    विडंबना यह है कि, हालांकि पढ़ना निश्चित रूप से फैशनेबल नहीं है, सामाजिक नेटवर्क के लिए सामग्री का निर्माण एक बढ़ता हुआ व्यवसाय है। हम अनेक अक्षरों की दुनिया में रहते हैं। इंस्टाग्राम और एक्स पर प्रकाशन उन अनुयायियों को आकर्षित करते हैं जिनके विचार और मुझे पसंद हैं, वे तत्काल समर्थन हैं। लेखन भी उन प्लेटफार्मों की सीमाओं के अनुकूल हो गया है: पाठकों को आकर्षित करने के लिए फ्लैश, ड्रेबल और माइक्रोपोसिया जैसी लघु कथाएं सामने आई हैं।

    हालाँकि हम संक्षिप्तता के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बता सकते, हममें से कई लोगों ने इसे पढ़ा है और इसे विस्तारित कथा साहित्य से जोड़ा है। एक सुविचारित कथानक की पीड़ा में घसीटा जाना, उसके बाद अजीब काल्पनिक लोगों की खुशियाँ और परीक्षण और फिर फाइनल में नायक विजयी और अधिक जीवंत बनकर उभरता है, जो अचूक रूप से संतुष्टिदायक रहा है। कल्पना के साथ जुड़ने की इस प्रक्रिया ने हममें से कई लोगों में सहानुभूति और रिश्तेदारी के बीज बोए हैं। यद्यपि उक्त पाठ का मूल्य उपयोगिता की दृष्टि से नहीं मापा जा सकता, परंतु यह जीवन में खेल के नियमों को बदलने की क्षमता रखता है।

    सवाल यह है कि क्या पढ़ने को बढ़ावा देने के सक्रिय उपाय युवा पीढ़ी के लिए वही जादू फिर से पैदा करेंगे। रुझान हर किसी के अनुसरण के लिए मौजूद हैं। लगभग सभी महत्वपूर्ण शहरों में पुस्तकालय और ब्राउज़र, वाचन मंडल और साहित्यिक सम्मेलन हैं। भारी किताबें ले जाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक रीडर बेहतर हैं। किताबों की चमक भले ही फीकी पड़ गई हो, लेकिन वे कभी गायब नहीं होंगी। सहस्राब्दी पीढ़ी और जेनरेशन जेड की जीवनशैली को अपनाकर, एलेक्सा की परिचित आवाज के साथ ऑडियोबुक, पॉडकास्ट और किंडल रीडर युवा लोगों के लिए बहुत आकर्षक हैं। 

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  • मुखौटे के पीछे

    26-Nov-2023

    गाजा प्रेस कार्यालय के अनुसार, युद्धविराम या “मानवीय विराम” के समय, गाजा को नष्ट करने में इज़राइल द्वारा मारे गए लोगों की संख्या 14,532 थी, अन्य 7,000 लोग लापता थे, जो संभवतः मलबे में दबे हुए थे। इस आंकड़े का 40 प्रतिशत बच्चों से बना है, और महिलाएं और बच्चे मिलकर होने वाली मौतों की संख्या का लगभग दो तिहाई प्रतिनिधित्व करते हैं।


    XXI सदी के किसी भी संघर्ष में बच्चों की इतनी दर से मृत्यु नहीं देखी गई। गाजा की अस्सी फीसदी आबादी बेघर हो गयी है. लगभग सभी इजरायली कैबिनेट सदस्यों ने गाजा में नरसंहार और/या जातीय सफाए का समर्थन करते हुए बयानबाजी की है। और फिर भी, पश्चिमी दुनिया के नेता, कुछ सम्मानजनक अपवादों के साथ, आत्मरक्षा के अपने अधिकार के स्वाभाविक विस्तार के रूप में या 7 अक्टूबर के हमास नरसंहार के अपरिहार्य परिणाम के रूप में इज़राइल के नरसंहार को वैध बनाना और समर्थन करना जारी रखते हैं।

    ओरिएंट ने एक बैंड चुना है। इज़राइल के प्रति उनका संरक्षण कोई नई बात नहीं है; जो नवीन और स्पष्ट है वह अपरिष्कृत राहत है जिसमें हम इस खूनी युद्ध के संदर्भ में अपना पक्षपात देख सकते हैं। गाजा इतना छोटा और इतनी घनी आबादी वाला है कि युद्ध की क्रूरता को आसानी से समझने योग्य ग्राफिक में संक्षेपित किया गया है। जो अत्याचार किसी अन्य अधिक जटिल भूगोल में अज्ञानता के कारण अस्पष्ट हो सकते थे, वे गाजा में क्रूरतापूर्वक स्पष्ट हैं।

    एक ऐसा क्षेत्र जो दोनों छोर पर बंद सीमा क्रॉसिंग द्वारा अवरुद्ध है और एक मीटर तक बमबारी की गई है। कथित तौर पर अपनी सुरक्षा के लिए, इज़राइल ने उत्तर में अपनी आबादी को दक्षिण की ओर जाने के लिए मजबूर किया, और फिर उत्तर को मलबे में तब्दील कर दिए जाने के बाद और अधिक बमबारी की धमकी के तहत उसे फिर से जाने का आदेश दिया। 77 मिलियन मृत और 20 लाख लोग, जो सर्दियों के करीब आते ही नमी, सूखे और बीमारियों के खतरे के साथ कैंप टेंटों में रह रहे हैं, उन्हें हमास को खत्म करने के इजरायल के सैन्य उद्देश्य के अनुपात में संपार्श्विक क्षति के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

     

    इस मामले का बचाव करना कठिन है। सिसजॉर्डन में इजरायली उपनिवेशवादी आबादी ने इजरायल के रक्षा बलों की सक्रिय सहायता से फिलिस्तीनियों के खिलाफ खुले मौसम की घोषणा की है। हालाँकि, यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी की सरकारों और, विशेष रूप से, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने प्रयासों को दोगुना कर दिया है और इस बात पर जोर दिया है कि जब तक इज़राइल हमास को नष्ट नहीं कर देता, तब तक युद्धविराम का कोई आह्वान नहीं किया जाएगा। जब इसकी तुलना आम गड्ढों में दफनाए गए नीले बैगों में सैकड़ों फिलीस्तीनियों की लाशों के वीडियो से की जाती है, तो सामूहिक सजा की साजिश कुछ और गहरी हो जाती है; युद्ध अपराधों में संलिप्तता दिखाई देने लगती है।

    यह संभावना नहीं है कि सार्वभौमिक मूल्यों और नियमों पर आधारित व्यवस्था के रक्षक के रूप में पश्चिम की प्रतिष्ठा, गाजा में इस साहसिक कार्य से पुनः प्राप्त हो जाएगी। गाजा विश्व जनमत को आकार देने में एक विभक्ति बिंदु प्रतीत होता है क्योंकि पश्चिमी नेताओं – ऋषि सुनक, कीर स्टार्मर, ओलाफ स्कोल्ज़ और जो बिडेन – ने इस बार निष्पक्ष होने का दिखावा नहीं किया। स्टार्मर ने सार्वजनिक रेडियो पर घोषणा की कि इज़राइल को गाजा पर कब्ज़ा करने और पानी और बिजली काटने का अधिकार है। जर्मन सरकार ने फिलिस्तीनी मुद्दे का समर्थन करने वाले आप्रवासियों को निर्वासित करने की धमकी दी। बिडेन ने हथियारों की खेप में तेजी लाई और सैन्य सहायता में चौदह मिलियन डॉलर का वादा किया।

    फिलिस्तीनियों के प्रति पश्चिम की शत्रुता की यह अस्वीकृति, उसके पारंपरिक पाखंड के विपरीत, इस क्षण को ऐतिहासिक बनाती है। अब ऐसा क्यों हुआ, इस पर इतिहासकार बीच-बीच में बहस करेंगे, लेकिन समकालीन होने के नाते हम कारणों का अनुमान लगा सकते हैं। पश्चिमी सरकारों में हमेशा से इज़राइल को एक कठिन पड़ोस में रहने वाले पश्चिमी देश के रूप में देखने की प्रवृत्ति रही है। यूरोप के मध्य में नरसंहार के बाद इज़राइल की स्थापना और इज़राइल के निर्माण में पूर्व नाजी यूरोपीय यहूदियों की महत्वपूर्ण भूमिका ने उन्हें यूरोपीय राष्ट्र मानद की एक प्रजाति होने का अधिकार दिया।

    यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने पश्चिमी कारों के एक दुष्चक्र को उकसाया। इससे पहले, शी जिनपिंग की दृढ़ता से उकसाए गए और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रोत्साहित चीन पर बड़े डर ने पश्चिमी पहचान की भावना को मजबूत किया था जो सोवियत संघ के गायब होने के बाद के दशकों में खत्म हो गई थी। इस भू-राजनीतिक रूप से आरोपित माहौल में, हमास द्वारा इजरायली नागरिकों का नरसंहार उतना ही आक्रोशपूर्ण लग रहा था जितना कि यह इस्लामवादियों की अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ इजरायल के साथ पश्चिमी एकजुटता का संकेत था।

    जो बात इजराइल के साथ एकजुटता के रूप में शुरू हुई वह और भी अधिक उग्र हो गई। जैसे ही पश्चिम के बड़े शहरों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों ने फिलिस्तीनियों का बचाव किया और आग भड़क उठी, पश्चिमी सरकारों और उनके बौद्धिक सहायकों ने प्रदर्शनकारियों पर नजर रखनी शुरू कर दी, 

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  • मोदी के लिये ‘पनौती’ का इस्तेमाल राजनीतिक दरिद्रता

    24-Nov-2023

    कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ की गयी ‘पनौती’ (अपशकुन), जेबकतरा एवं कर्ज माफी जैसी अशोभनीय टिप्पणियों के कारण निशाने पर हैं। चुनाव आयोग (ईसी) ने हालिया टिप्पणियों के लिए राहुल गांधी को कारण बताओ नोटिस जारी करके निर्णायक कार्रवाई की है। यह कार्रवाई सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा चुनाव आयोग में दर्ज की गई एक शिकायत का संज्ञान लेते हुए की गयी है। चुनाव आयोग ने जहां पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा पर चिंता व्यक्त की वही भाजपा ने तर्क दिया कि ऐसी भाषा एक वरिष्ठ राजनीतिक नेता के लिए ‘अशोभनीय’ है। पिछले लम्बे दौर से विश्वनेता के रूप में प्रतिष्ठित देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दर्शन, उनके व्यक्तित्व, उनकी बढ़ती ख्याति, उनकी बहुआयामी योजनाओं व उनकी कार्य-पद्धतियांे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान में विपक्षी नेताओं और विशेषतः कांग्रेस नेताओं ने अमर्यादित, अशिष्ट, छिछालेदार भाषा का उपयोग कर राजनीतिक मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है। विडम्बना देखिये मोदी को गालियां देकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करने वाले राहुल गांधी इसका खामियाजा भी भुगतते रहे हैं, लेकिन राजनीतिक अपरिवक्वता के कारण वे कोई सबक लेने का तैयार नहीं है।


    निर्वाचन आयोग ने राहुल गांधी को याद दिलाया कि आदर्श चुनाव आचार संहिता नेताओं को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ असत्यापित आरोप लगाने से रोकती है। लेकिन राहुल गांधी ने राजस्थान में हाल की रैलियों में प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए उनके लिए ‘पनौती’, जेबकतरे और अन्य विवादित शब्दों का इस्तेमाल किया था। राहुल गांधी के ये अशोभनीय एवं मर्यादाहीन बयान क्या रंग लायेगा, यह भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र के लिये देश के प्रधानमंत्री के लिये इस तरह के निम्न, स्तरहीन एवं अमर्यादित शब्दों का प्रयोग होना, एक विडम्बना है, एक त्रासदी है, एक शर्मनाक स्थिति है। केवल कांग्रेस ही नहीं, अन्य राजनीतिक दल के नेता भी ऐसी अपरिपक्वता एवं अशालीनता का परिचय देते रहे हैं। पिछले नौ वर्षों में उद्योगपतियों को चौदह लाख करोड़ रुपये की छूट देने के आरोप भी सत्यता से परे, तथ्यहीन, भ्रामक एवं गुमराह करने वाले हैं। ‘जेबकतरे’ शब्द का प्रयोग करते हुए आरोप लगाया गया कि प्रधानमंत्री लोगों का ध्यान भटकाते हैं। जबकि उद्योगपति गौतम अडानी उनकी (लोगों की) जेब से पैसे निकालते हैं। उन्होंने आरोप लगाया था कि जेबकतरे इसी तरह काम करते हैं। आयोग ने राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी के बारे में भी बताया जिसमें कहा गया था कि अगर संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की जाती है तो प्रतिष्ठा के अधिकार को भी अनुच्छेद 21 में संरक्षित जीवन के अधिकार का एक अभिन्न हिस्सा माना जाता है। इन दो अधिकारों को संतुलित करना एक संवैधानिक आवश्यकता है। लेकिन राहुल गांधी को यह संतुलन साधना कहा आता है?
    राहुल गांधी ने अहमदाबाद में विश्व कप क्रिकेट के फाइनल मैच में ऑस्ट्रेलिया से भारत की हार के बाद राजस्थान में चुनावी भाषण में मोदी के खिलाफ ‘पनौती’ जैसे आपत्तिजनक, विवादित एवं अपशब्द का इस्तेमाल किया था। यह एक शब्दभर नहीं है, बल्कि अनेक कुटिलताओं की अभिव्यक्ति है, ‘पनौती’ मोटे तौर पर ऐसे शख्स के लिये उपयोग किया जाता है, जिसकी मौजूदगी होने भर से बनता काम बिगड़ जाता है। आम तौर पर पनौती शब्द ऐसे व्यक्ति के लिए इंगित किया जाता है जो बुरी किस्मत लाता है। वैसे इसका किसी ज्ञान-विज्ञान और तर्क से नाता नहीं है। जाने-माने भाषाविद् डॉक्टर सुरेश पंत के मुताबिक, हिंदी में -औती प्रत्यय से अनेक शब्द बनते हैं। इनमें कटौती, चुनौती, मनौती, बपौती इत्यादि शामिल हैं। पनौती शब्द नकारात्मकता एवं अशुभता का सूचक है। पनौती को शनि की बुरी दशा का समय माना जाता है। इसका मतलब बाढ़ भी होता है। पनौती तमिल शब्द पन्नादाई का अपभ्रंश भी है। इसका मतलब होता है ‘एक ढीला बुना हुआ कपड़ा’ या ‘मूर्ख’।

    बात केवल राहुल गांधी की ही नहीं है, कौन भूल सकता है सोनिया गांधी का वह बयान, जिसने वास्तव में गुजरात की जनता को झकझोर कर रख दिया था। तब सोनिया ने गुजरात के तत्कालीन और बेहद लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ बताया था। सोनिया ने कहा था, “मेरा पूरा भरोसा है कि आप ऐसे लोगों को मंजूर नहीं करेंगे जो जहर के बीज बोते हैं।“ ‘मौत का सौदागर’ के बाद ‘जहर की खेती’ के इस बयान ने गुजरात ही नहीं, देश की जनता की भावना को जगा दिया। नतीजा लोकसभा चुनाव के परिणाम के रूप में सामने आया, जिसमें बीजेपी को 278 और कांग्रेस को 45 सीटें मिली। जनता को बेवकूफ एवं नासमझ समझने की भूल कांग्रेस बार-बार करती रही है और बार-बार मात खाती रही है। इन चुनावों में भी ऐसी मात खाने को मिले तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि जनता अपने सर्वोच्च नेतृत्व को मर्यादाहीन तो कत्तई नहीं देखना चाहती। कोई पूर्व केबिनेट मंत्री मणिशंकर अय्यर मोदी को ‘नीच’ तक कह देता है तो राहुल तो सर्जिकल स्ट्राइक पर ‘खून की दलाली’ जैसे आरोप लगाते रहे हैं।

    नोटबंदी को लेकर जहां पूरा देश नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा था, तब विपक्ष को काले कारोबारियों के साथ खड़ा होने में जरा भी शर्म नहीं आई। विपक्ष ने दुनिया के कुख्यात रहे तानाशाह हिटलर, मुसोलिनी, कर्नल गद्दाफी से प्रधानमंत्री मोदी की तुलना कर डाली। इस तरह के स्तरहीन, औछे एवं अमर्यादित बयानों से न केवल विपक्ष दलों के नेताओं बल्कि कांग्रेस पार्टी की न केवल फजीहत होती रही है, बल्कि उसकी बौखलाहट को दर्शाती रही है। इस तरह के लोग राजनीति में जगह बनाने के लिये ऐसी अनुशासनहीनता एवं अशिष्टता करते हैं। राहुल के इस तरह के ओछे, स्तरहीन एवं अशालीन शब्दों के प्रयोग का एक लम्बा सिलसिला है। मोदी पर गाली की बौछार में कभी उनको सांप, बिच्छू और गंदा आदमी कहा था। तो कभी लहू पुरुष, पानी पुरुष और असत्य का सौदागर भी बताया। सत्ता के शीर्ष पर बैठकर यदि इस तरह जनतंत्र के आदर्शों को भुला दिया जाता है तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की आशा नहीं की जा सकती, पर वे अशालीनता एवं अमर्यादा पर उतर आये, यह ठीक नहीं है। महात्मा गांधी ने कहा था कि मेरा ईश्वर दरिद्र-नारायणों में रहता है।’ आज यदि उनके भक्तों- कांग्रेसजनों से यही प्रश्न पूछा जाये तो संभवतः यही उत्तर मिलेगा कि हमारा ईश्वर कुर्सी में रहता है, सत्ता में रहता है। तभी उनमें अच्छाई-बुराई न दिखाई देकर केवल सत्तालोलुपता दिखती है।
    ये तथाकथित लेता गाली ही नहीं देते रहे, बल्कि गोली तक की भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन कोई गाली या गोली मोदी का बाल भी बांका नहीं कर सकेंगी क्योंकि वे जनसमर्थन से इन ऊंचाइयों को पाया है। मोदी को तो बोटी-बोटी काट देने की धमकी खुलेआम दी गयी। किसी ने मोदी को रैबिज से पीड़ित बताया तो किसी ने उन्हें केवल चूहे मात्र माना। चायवाले से तो वे चर्चित हैं। लेकिन मोदी के व्यक्तित्व की ऊंचाई एवं गहराई है कि उन्होंने अपने विरोध को सदैव विनोद माना। मोदी को बार-बार कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है। चुनाव का समय हो या सामान्य कार्य के दिवस मोदी ने कम गालियां नहीं खाईं। उनके विचारों को, कार्यक्रमों को, देश के लिये कुछ नया करने के संकल्प को बार-बार मारा जा रहा है। लेकिन मोदी भारत की आजादी के बाद बनी सरकारों के अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हंे कोई गोली या गाली नहीं मार सकती। क्योंकि मोदी की राजनीति व धर्म का आधार सत्ता नहीं, सेवा है, राष्ट्र-निर्माण है। जनता को भयमुक्त व वास्तविक आजादी दिलाना उनका लक्ष्य है। वे सम्पूर्ण भारतीयता की अमर धरोहर हैं। भ्रष्टाचार उन्मूलन, कालेधन पर शिकंजा कसने, वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने, नया भारत निर्मित करने, स्वच्छता अभियान, दुनिया की सशक्त तीसरी आर्थिक ताकत बनाने, दलितों के उद्धार और उनकी प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर रखा है। उनके जीवन की विशेषता कथनी और करनी में अंतर नहीं होना है। चुनावी बिसात बिछते ही या फिर वर्तमान राजनीति में जिस प्रकार से भाषा की मर्यादाएं टूट रही हैं और हमारे राजनेताओं का जो आचरण सामने आ रहा है, उसे कहीं से भी हमारे लोकतंत्र, राजनीति, सभ्य समाज या हमारी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श स्थिति नहीं कहा जा सकता ।

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