17-Jul-2024
9:21:58 pm
चढ़ती कीमतों को नीचे लाने के उपाय
पिछले महीने यूरोपीय संघ ने यह कहते हुए ऋण दरों में कटौती की थी कि उसने महंगाई को काफी हद तक काबू में कर लिया है। ऐसा करने वाली वह दूसरी प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्था थी, क्योंकि इससे पहले कनाडा ने भी दरों में कमी करने का एलान किया था। अब अमेरिका ने भी लगातार तीन महीने तक महंगाई कम होने के कारण यह संकेत दिया है कि जल्द ही फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में कटौती कर सकता है। जाहिर है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक देश अपने यहां दरों में कमी कर रहे हैं, जिससे लगता है कि महंगाई को नियंत्रित करने में वे सफल साबित हो रहे हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि कोरोना महामारी, यूक्रेन संकट और फिर इजरायल-हमास जंग की वजह से वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर जो नकारात्मक असर पड़ा था, उससे पार पाने में उन्हें सफलता मिलने लगी है। मगर भारत में हालात चुनौतीपूर्ण नजर आते हैं। यहां फल-सब्जियां ही नहीं, खाद्यान्न के दाम भी चढ़ रहे हैं।
अक्सर देखा गया है कि गर्मी बढ़ने या बारिश ज्यादा होने से फलों और सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं, क्योंकि इनके भंडारण की समुचित व्यवस्था अपने देश में नहीं है। मगर क्या वजह है कि गेहूं, चावल जैसे खाद्यान्न की कीमतें भी चढ़ रही हैं, जबकि इनका संग्रह किया जा सकता है और हमारे पास इनका पर्याप्त भंडार भी है? वह भी तब, जब इनकी रिकॉर्ड पैदावार के दावे किए गए थे और हमने निर्यात पर भी रोक लगा दी थी? साफ है, भारत में विशेषकर खाने-पीने की वस्तुओं का प्रबंधन काफी कमजोर है, और यह भी कि शायद रिकॉर्ड उत्पादन नहीं हुआ है। कुछ विशेषज्ञ कहते भी हैं कि उत्पादन के आकलन का मौजूदा तरीका गलत है, जिसमें सुधार की सख्त जरूरत है।
अभी महंगाई दो तरीकों से मापी जाती है- एक, थोक मूल्यों के आधार पर, और दूसरा, उपभोक्ता मूल्यों के आधार पर। थोक मूल्य मूलत: उत्पादकों से जुड़ा है। किसानों, फैक्टरियों या उत्पादन करने वाली इकाइयों आदि के थोक उत्पाद इसमें शामिल होते हैं। महामारी के बाद भारत में थोक मूल्य सूचकांक में काफी बढ़ोतरी देखी गई थी। एक समय तो यह 15 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा था। मगर इसकी तुलना में उपभोक्ता मूल्य उतना नहीं बढ़ा और वह सात-आठ प्रतिशत पर बना रहा। इसके बाद थोक मूल्य नीचे लुढ़का, लेकिन उपभोक्ता मूल्य पर आधारित महंगाई में बहुत कमी नहीं आई। रिजर्व बैंक द्वारा तय चार प्रतिशत (दो प्रतिशत ऊपर या नीचे) के लक्ष्य के करीब आने में भी इसे खासा वक्त लगा। आज भी यह पांच प्रतिशत से अधिक की रफ्तार से बढ़ रही है।
सवाल है, महंगाई आम आदमी को किस तरह परेशान करती है? दरअसल, हर तबके के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का अर्थ अलग-अलग होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हर वर्ग के लिए उपभोग की प्राथमिकता अलग-अलग होती है। मसलन, गरीबों के बजट में खाने-पीने की वस्तुओं की हिस्सेदारी 40 फीसदी तक होती है, जबकि अमीर तबके में यह बमुश्किल पांच प्रतिशत। इसी कारण जब खाद्यान्न के दाम बढ़ते हैैं, तो गरीबों की थाली कहीं ज्यादा बिगड़ जाती है। इसके बनिस्बत, महंगाई अमीरों की बचत पर चोट करती है, क्योंकि वे अपनी बचत घटाकर ही महंगाई से लड़ते हैं, वहीं एक तबका व्यापारी वर्ग भी है, जिसके लिए महंगाई कारोबारी लाभ लेकर आती है।
ऐसे में, जरूरी है कि महंगाई से पार पाने के लिए पर्याप्त उपाय किए जाएं। इस दिशा में फूड मैनेजमेंट, यानी खाद्य प्रबंधन काफी अहम साबित हो सकता है। गेहूं, चावल जैसे उत्पादों के दाम इसलिए फल अथवा सब्जियों की तरह तेजी से ऊपर-नीचे नहीं होते, क्योंकि इनकी सरकारी खरीद होती है और एक नियत मात्रा में इनका भंडारण किया जाता है। हमें बाकी उत्पादों के लिए भी यही रणनीति अपनानी चाहिए। विशेषकर टमाटर, आलू अथवा प्याज को कोल्ड स्टोरेज में रखा जा सकता है। बाकी सब्जियों अथवा फलों को खाद्य प्रसंस्करण के जरिये सहेजने की रणनीति बनाई जानी चाहिए। मौजूदा हालात में खाद्य प्रसंस्करण और खाद्य भंडारण को बढ़ावा देना काफी जरूरी है। मगर दिक्कत यह है कि इसमें पर्याप्त मात्रा में निवेश नहीं हो रहा। निवेशकों की चिंता है कि यदि वे भंडारण करते हैं और बाद में भंडारण की सीमा कम कर दी गई, तो उन्हें औने-पौने दाम पर उत्पाद बेचने होंगे, जिससे उनको घाटा हो सकता है। लिहाजा, सरकार को एक स्थायी नीति बनानी चाहिए।
उसे न सिर्फ इन उत्पादों की खरीद करनी चाहिए, बल्कि कारोबारियों को यह भरोसा भी देना चाहिए कि दाम ज्यादा ऊपर-नीचे नहीं होंगे। इससे कोल्ड स्टोरेज करने वाले लोगों या खाद्य प्रसंस्करण करने वाली कंपनियों को एक मुकम्मल संदेश जाएगा। वैसे भी, महंगाई बढ़ने पर सरकार दखल देने में देर नहीं करती। मसलन, टमाटर-प्याज के दाम बढ़ने पर वह खुद सस्ते दामों में इनको बेचने लगती है। लिहाजा, जब हर साल तात्कालिक तौर पर यही नीति अपनाई जा रही है, तो इसे स्थायी जामा क्यों नहीं पहना दिया जाता?
विकसित देशों में यह नीति काफी कारगर रही है। वहां खाद्य प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां उत्पादन अधिक होने पर प्रबंधन की जिम्मेदारी संभाल लेती हैं। वहां बड़ी जोत वाली कॉरपोरेट कंपनियां भी अधिक हैं, जो सुनिश्चित करती हैं कि कैसे उत्पादों का भंडारण किया जाए? जबकि, भारत में छोटे किसानों की संख्या अधिक है, जिनके पास भंडारण की उचित सुविधा नहीं है। इसलिए जो काम विदेश में कंपनियां करती हैं, उसे हमारी सरकारों को करना होगा। फसलों की सरकारी खरीद के साथ-साथ उनका भंडारण भी किया जाना चाहिए। बेशक, इस काम में प्रशासनिक चुनौतियां भी आड़े आएंगी, लेकिन ऐसा करना जरूरी है।
महंगाई कम करने में रिजर्व बैंक भी कुछ हद तक अपनी भूमिका निभा सकता है। वह मांग को नियंत्रित करके महंगाई कम कर सकता है, लेकिन जहां आपूर्ति शृंखला में गड़बड़ी है, वहां वह खाली हाथ रह सकता है। कराधान में भी सुधार आवश्यक है और हमें अप्रत्यक्ष कर को कम करना चाहिए। अभी कर-जीडीपी अनुपात 17 फीसदी के करीब है, जिसमें प्रत्यक्ष कर की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत और अप्रत्यक्ष कर की 6 प्रतिशत है। ऐसे में, यदि हम लग्जरी उत्पादों पर ही अप्रत्यक्ष कर लगाएं, तो गरीबों को काफी राहत मिल सकेगी। मतलब साफ है कि महंगाई नियंत्रित करने में रिजर्व बैंक की उतनी भूमिका नहीं है, जितनी सरकार की है।
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