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संपादकीय

  • नैतिकता, राजनीति और पैरवी की कला, मतदाताओं को लुभाना

    02-Nov-2023

    निर्वाचित विधायिकाओं वाले लोकतंत्रों में, लोगों के प्रतिनिधियों और लोगों के बीच बातचीत मेजबान के साथ समान रूप से तैयार भोजन खाने के लिए मिट्टी की झोपड़ी में जाने तक ही सीमित नहीं है, जिसे आमतौर पर पिछड़े वर्ग या जाति के प्रतिनिधि के रूप में चुना जाता है। विधायकों और जनता के वर्गों के बीच बातचीत होती है, कुछ शक्तिशाली, कुछ अमीर, कुछ प्रभावशाली और कुछ आलोचनात्मक। यह इस बात का हिस्सा है कि प्रतिनिधि जनता की बात कैसे सुनते हैं।

     
     
    पैरवी करने की कला या यहां तक कि इसके शिल्प को कुछ हद तक सावधानी से संभालने की आवश्यकता होती है। जबकि संसद की आचार समिति महुआ मोइत्रा के खिलाफ उनके द्वारा स्वीकार किए गए कदाचार के लिए शिकायत पर विचार-विमर्श करेगी और आगे बढ़ेगी, उनके शब्दों में, एक कॉर्पोरेट निकाय, हीरानंदानी समूह के एक कर्मचारी को उनके ईमेल पते तक पहुंचने की अनुमति देने तक सीमित है, उन्होंने इस बात से सख्ती से इनकार किया है वहाँ कोई प्रतिशोध था या “नकदी कहाँ है?”
     
     
    भाजपा के क्रोधित धार्मिक निशिकांत दुबे द्वारा महुआ मोइत्रा पर फेंके गए आरोपों, हीरानंदानी समूह की ओर से उनकी कथित पैरवी और पैरवी की पूरी तरह से लोकतांत्रिक प्रथा के बीच, एक कहानी लटकी हुई है। यह कहानी महुआ मोइत्रा को मिली कथित नकदी की नहीं है; कहानी दो विधायकों की है, जिन्होंने सुश्री मोइत्रा के अनुसार उन्हें अपने नुकीले हमलों के लक्ष्य, अर्थात् अब प्रसिद्ध अदानी समूह, के साथ समझौता करने के लिए कहा।
     
    मुद्दा सरल है; क्या सुश्री मोइत्रा द्वारा अपना ईमेल पता साझा करना राष्ट्रीय हित को नुकसान पहुंचाने जैसा अपराध है? यह एक राय का विषय है. एथिक्स कमेटी और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला इस मामले पर एक राय बनाएंगे। दूसरे मुद्दे पर, किसने किसकी पैरवी की और किसकी ओर से, सुश्री मोइत्रा को यह तय करना होगा कि वह क्या कार्रवाई अपनाएंगी। समान रूप से, पूर्ण प्रकटीकरण और नैतिक आचरण के हित में, श्री दुबे के लिए यह घोषित करना पूरी तरह से उचित होगा कि वह झारखंड में गोड्डा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो “अडानी पावर झारखंड लिमिटेड (एपीजेएल)” का घर है, जो एक पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी है। अदानी पावर लिमिटेड की”।
     
    निर्वाचित लोकतंत्रों में खुलासे आवश्यक हैं। मतदाताओं को इस बात की जानकारी दी जानी चाहिए कि कौन क्या करता है और क्यों करता है ताकि वे यह तय कर सकें कि वे किसे अपना प्रतिनिधित्व करना चुनेंगे, क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधित्व संरचना के हर स्तर पर जिम्मेदारी और शक्ति बढ़ जाती है।
     
    विधायक क्या करते हैं और चुनावी मौसम में मतदाताओं को लुभाने के बीच यह सीधा संबंध ही है जो महुआ मोइत्रा मुद्दे को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए इतना महत्वपूर्ण बनाता है। सुश्री मोइत्रा को आचरण के एक मानक पर नहीं रखा जा सकता है यदि दूसरों को आचरण के समान मानक पर नहीं रखा जाता है।
     
    निर्वाचित प्रतिनिधियों के विधायिकाओं में पहुंचने के बाद उनका आचरण लोकतंत्र के विचार के लिए महत्वपूर्ण है। क्या संसद सदस्यों को पैरवी के बारे में तीखे सवाल पूछने चाहिए? क्या उन्हें कार्यस्थल पर निहित स्वार्थों पर संदेह करना चाहिए? या क्या उन्हें अपनी पूछताछ उन मामलों तक ही सीमित रखनी चाहिए जिन पर संदेह कम है?
     
     
    फिलहाल, ऐसा लगता है कि सुश्री मोइत्रा अकेले ही इससे जूझ रही हैं। तृणमूल कांग्रेस ने इस विवाद में न फंसने का फैसला किया है। हालाँकि, टीएमसी को जल्द ही यह निर्णय लेना होगा कि वह एथिक्स कमेटी की सुनवाई के नतीजे से कैसे निपटेगी। पार्टी इनकार की स्थिति में नहीं रह सकती. मोइत्रा मामला भारत के संसदीय इतिहास के इतिहास में गिना जाएगा।
     
    जबकि जनता का एक वर्ग महुआ मोइत्रा मामले से नाराज है, पांच राज्यों – कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़, भारत राष्ट्र समिति शासित तेलंगाना, मिजो नेशनल फ्रंट शासित मिजोरम और भाजपा शासित मध्य प्रदेश – में मतदाताओं से अपेक्षा की जाती है प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों की पिचों से प्रभावित होना। इसलिए मोइत्रा मामला मतदाताओं को रिझाने की चल रही लड़ाई के केंद्र में है।
     
    सिद्धांत रूप में, भाजपा कांग्रेस शासित राज्यों में चुनौती देने वाली पार्टी है और वह तेलंगाना में भी खुद को चुनौती देने वाली पार्टी के रूप में मानना चाहेगी। यदि दुबे के खुलासे का समय अलग होता, तो ध्यान का ध्यान कांग्रेस और मध्य प्रदेश में भारतीय गठबंधन के भीतर असफल सीट-बंटवारे पर केंद्रित हो जाता। ध्यान मजबूती से मंडल (जाति जनगणना की मांग) बनाम “कमंडल” (देश को जाति और धर्म के आधार पर विभाजित करना) युद्ध पर केंद्रित किया गया होगा।
     
    कांग्रेस ने जाति जनगणना और लोगों की शक्ति के विचार दोनों को अपने अभियान का केंद्रीय मुद्दा बनाया है। “सवाल आई बात के है कि प्रदेश हमार हरे कि अडानी के हरे” (सवाल यह है कि राज्य हमारा है या अडानी का), एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मर्यादा और दूसरी तरफ उनकी सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकताओं को चुनौती दे रहा है। इसके विपरीत, कर्नाटक सहित पिछले कई चुनावों में भाजपा के सुपरस्टार प्रचारक के रूप में, श्री मोदी ने हर राज्य में “डबल इंजन सरकार” स्थापित करने की अनिवार्यता पर जोर दिया है और प्रधान मंत्री के रूप में अपनी निरंतरता की भविष्यवाणी की है। 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद.
     
    2024 में सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी को पांच राज्यों के चुनाव में बड़ी जीत हासिल करनी होगी. दरअसल, बीजेपी को सभी पांच राज्यों में चुनौती मिल रही है, जो बिल्कुल नई स्थिति है। यह बीजेपी के लिए अभूतपूर्व स्थिति है और उसके नेता. भाजपा को राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार को उखाड़ फेंकने की जरूरत है, लगभग 20 साल तक सत्ता में रहने के बाद अपनी खुद की सत्ता विरोधी लहर से लड़ने की जरूरत है और छत्तीसगढ़ में मजबूती से जमी हुई भूपेश बघेल सरकार को हटाने के लिए श्री मोदी के अलावा एक नेता की तलाश करनी होगी।
     
    तेलंगाना में अथक मास्टरमाइंड और जिद्दी प्रचारक अमित शाह द्वारा भाजपा के जीतने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए “पिछड़े वर्गों” को ज़बरदस्त प्रलोभन दिया गया है, यह इस बात का संकेत है कि पार्टी एक ऐसी अपील की तलाश में घूम रही है जो मतदाताओं के साथ काम करेगी। यह प्रधान मंत्री मोदी द्वारा गढ़ी गई उस कहानी को रद्द करता है जिसमें कहा गया था कि विपक्ष जाति-पहचान के मुद्दों और क्षेत्रीय मतभेदों पर ध्यान केंद्रित करके विभाजन की राजनीति में लगा हुआ है, जिससे विभाजन को बढ़ावा मिल रहा है और भाजपा की हिंदुत्व विचारधारा के केंद्र में बहुमत के विचार को खत्म किया जा रहा है।
     
     
    इससे पहले कभी भी श्री मोदी की स्टार पावर को मिजोरम के मुख्यमंत्री और एमएनएफ प्रमुख ज़ोरमथांगमा ने इतना अस्वीकार नहीं किया था। उनका संदेश स्पष्ट था और यह श्री मोदी को संबोधित था: “दूर रहो”। इस अस्वीकृति ने श्री मोदी को ममित में अपना अभियान दौरा रद्द करने के लिए मजबूर किया। मणिपुर पर श्री मोदी की निपुण निष्क्रियता ने उन्हें इतना असुरक्षित बना दिया है, जितना पहले कभी नहीं हुआ।
     
    चुनाव का यह दौर नरेंद्र मोदी के लिए उतना ही कठिन है जितना कांग्रेस और भारतीय गठबंधन के लिए। जितनी कांग्रेस को सफलता की जरूरत है, उतनी ही श्री मोदी और भाजपा को भी, क्योंकि राजनीतिक संतुलन जो एक पक्ष को सत्ता में रखता है और दूसरे पक्ष को सत्ता से बाहर रखता है, उसमें बदलाव की जरूरत है।

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  • इस्राईल-हमास युद्ध और भारत में ‘युद्धोन्माद’

    22-Oct-2023

    7 अक्टूबर को दक्षिणी इज़राइल पर हमास के दुर्भाग्यपूर्ण हमले के बाद इज़राईली सेना द्वारा बदले की कार्रवाई विगत 15 दिनों से लगातार जारी है। ख़बरों के अनुसार 7 अक्टूबर को हमास द्वारा किये गये हमले में लगभग 1,400 इज़राइली और और कई विदेशी नागरिक मारे गए थे। जबकि इज़राईल सेना द्वारा बदले की कार्रवाई करते हुये अब तक ग़ज़ा को लगगभग पूरी तरह तहस नहस किया जा चुका है। हमास के इस्राईल पर किया गया हमला पूर्णतयः निंदनीय था। परन्तु इस्राईली सेना के जवाबी हमलों में ग़ज़ा में अब तक लगभग 25 हज़ार से ज़्यादा इमारतें तबाह हो चुकी हैं।लगभग एक दर्जन अस्पतालों और 50 से अधिक स्कूलों पर इस्राईली टैंकों व वायु सेना द्वारा बमबारी कर उन्हें ध्वस्त किया जा चुका है। ग़ज़ा में अब तक मरने वालों की संख्या लगभग 7 हज़ार से अधिक हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार,ग़ज़ा में अब तक मारे गए लोगों में से लगभग 70 प्रतिशत बच्चे और महिलाएं शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार ग़ज़ा में पांच लाख से ज़्यादा लोग घर छोड़ने को मजबूर हुए हैं। ग़ज़ा में केवल एक  अस्पताल पर हुये हमले में ही पांच सौ से ज़्यादा लोग मारे गए थे। जिसके बाद पूरी दुनिया में इस्राईल के विरुद्ध ग़ुस्सा फैल गया था। इस युद्धअपराधी हमले की चौतरफ़ा आलोचना व निंदा की गयी थी।

     
    इस मानवता विरोधी युद्ध के दौरान दुनिया के अनेक देशों में फ़िलिस्तीनियों के समर्थन में तथा ‘ज़ायनिस्टों ‘की क्रूरता के विरोध में प्रदर्शन किये गये हैं। यहाँ तक कि इस्राईल,अमेरिका व ब्रिटेन सहित कई देशों में तो स्वयं इस्राईली मानवतावादियों द्वारा ‘ज़ायनिस्टों ‘ द्वारा किये जा रहे युद्ध अपराधों के विरुद्ध प्रदर्शन किये गये हैं। इसके अतिरिक्त हज़ारों लोग अमेरिका और यूरोप में भी कई प्रमुख शहरों में फ़िलिस्तीन के समर्थन में सड़कों पर उतर आए हैं। यहूदी संगठनों के सदस्यों सहित हज़ारों फ़िलिस्तीनी समर्थक प्रदर्शनकारी पिछले दिनों वॉशिंगटन के कैपिटल हिल में सड़कों पर उतर आए। उन्होंने इस्राइल-हमास के बीच चल रही जंग तत्काल बंद करने की मांग की। दुनियाभर के और भी कई देशों में इस्राइल के विरोध और फ़िलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। कनाडा के टोरंटो सहित कई शहरों में भी फ़िलिस्तीन के समर्थन में नारेबाज़ी की गई और इस जंग को तुरंत रोकने की मांग की गयी। इस दौरान फ़िलिस्तीन और ग़ज़ा की आजादी के नारे लगाए गए और ग़ज़ा पर इस्राइली सेना के हमले की निंदा की गयी। ये प्रदर्शनकारी ग़ज़ा  में हिंसा समाप्त करने की मांग तो कर ही रहे हैं साथ ही फ़िलिस्तीनी लोगों के अधिकारों के साथ भी खड़े हुये हैं। इसी तरह न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च में फ़िलिस्तीन सॉलिडेरिटी नेटवर्क एओटेरोआ द्वारा आयोजित फ़िलिस्तीन समर्थक रैली में प्रदर्शनकारियों ने इस्राइल से युद्ध रोकने और उसके क़ब्ज़े वाली फ़िलिस्तीनी भूमि को छोड़ने का आह्वान किया गया। ब्रिटेन में लंदन सहित अन्य स्थानों पर भी फ़िलिस्तीन के समर्थन में नारेबाज़ी की गई और युद्ध के विरुद्ध बड़ी संख्या में लोगों ने पैदल मार्च किया। इसी तरह फ़्रांस की राजधानी पेरिस में भी फ़िलिस्तीन के समर्थन में नारेबाज़ी की गई। इस दौरान लोगों ने फ़िलिस्तीन के झंडे लहराए और इस्राइल के विरोध में नारेबाज़ी की। प्रदर्शनकारियों ने इस्राइल और हमास के युद्ध को बंद करने की मांग की। इसी तरह इंडोनेशिया,मोरक्को,लेबनान व अन्य कई देशों में भी बड़ी संख्या में इस्राईल विरोधी,युद्ध विरोधी व फ़िलिस्तीनी अधिकारों के पक्ष में जुलूस,मार्च व प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है।
     
     
    परन्तु आश्चर्य की बात है कि इस युद्ध का सबसे अधिक उन्माद भारत में दिखाई दे रहा है। वह भी सोशल मीडिया व टी वी चैनल्स पर। भारत में इज़राइल – हमास युद्ध का उन्माद इस क़दर छाया हुआ है कि इसमें झूठ फ़रेब और अफ़वाहों का भी बोल-बाला है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत फ़िलिस्तीनी अधिकारों के तो साथ है परन्तु हमास की हिंसक कार्रवाइयों के विरुद्ध है। परन्तु भारतीय दक्षिणपंथियों द्वारा इज़राईल के दक्षिण पंथी ज़ायनिस्टों का भरपूर समर्थन सीमा से भी आगे जाकर किया जा रहा है। निश्चित रूप से भारतीय मुसलमानों की हमदर्दी पीड़ित फ़िलिस्तीनियों के साथ है। मुसलमान ही नहीं बल्कि भारत भी आठ दशक से फ़िलिस्तीनियों के अधिकारों के समर्थन में खड़ा रहा है,और आज भी है। परन्तु भारत में दक्षिणपंथियों द्वारा इस हद तक इस्राईली क्रूरता को अपना समर्थन देना कि अनेक लोग सोशल मीडिया पर इस्राईली सेना की ओर से युद्ध करने की पेशकश करने लगें,अपने प्रोफ़ाइल में इस्राईली झंडे लगाने लगें,हमास की क्रूरता भरे वीडिओ पोस्ट करें परन्तु इस्राईली ज़ायनिस्टों का अमानवीय पक्ष इन्हें नज़र न आये ,न ही इन्हें इस्राईली वायु सेना की ग़ज़ा के अस्पतालों पर की गयी बमबारी दिखाई दे ,न ही फ़िलिस्तीनियों का दाना -पानी बंद करना तक नज़र न अये। और उल्टे इस्राईल द्वारा किये जा रहे नरसंहार पर जश्न का माहौल बनाने लगें ,यह स्थिति तो बेहद चिंताजनक है।
     
    भारत में फैले इस उन्माद की चर्चा तो विदेशों में विभिन्न बड़े समाचार पत्रों तक में हो रही है। ख़ास तौर से भारतीय दक्षिणपंथियों के इस उन्मादी रुख़ पर दुनिया इसलिये भी आश्चर्यचकित है कि स्वयं भारत में मणिपुर कई महीनों से सुलग रहा है। मानवता का गला घोंटने वाले कई बड़े हादसे मणिपुर में भी हो चुके हैं। बस्तियां फूंकना,लोगों को ज़िंदा जलाना, हत्या,सामूहिक बलात्कार, महिलाओं को नग्न घुमाना,मंत्री,सांसद,विधायक,अधिकारियों व नेताओं के घरों को आग लगाना,क्या कुछ नहीं हुआ मणिपुर में। परन्तु उसकी चिंता इन इस्राईल समर्थकों को नहीं बल्कि यह इस्राईली युद्ध उन्माद के साथ खड़े हैं। ठीक उसी तरह जैसे इनके वैचारिक वंशज उस समय हिटलर के साथ खड़े थे जब वह इन्हीं यहूदियों का नरसंहार करने में लगा था ? गोया धर्म का चोला ओढ़ने वालों को हिंसा व क्रूरता जैसे अधर्म से ही इतना लगाव क्यों ? सवाल यह है कि कबीर,रहीम,रसखान,टीपू सुल्तान,अशफ़ाक़ुल्लाह,बेगम हज़रत महल,रज़िया सुल्तान,अब्दुल हमीद और ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे लोगों के देश में यह उन्मादी विचारधारा कहाँ से पनप गयी जिसे मुसलमानों का नरसंहार देखने में ही आनंद मिलता है ? यही वर्ग राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति की बात भी बढ़ चढ़कर करता है। परन्तु शायद वह अपने इस युद्धोन्माद में यह भूल चुका है कि उसके उस इस मूर्खतापूर्ण युद्धोन्मादी स्टैंड से दुनिया में यह देश कितना बदनाम हो रहा है ? हद तो यह है कि इसी युद्धोन्मादी विचारधारा का पोषक भारतीय मीडिया का एक वर्ग भी निष्पक्ष पत्रकारिता के लिये नहीं बल्कि अपने व्यवसायिक मक़सद के तहत इस्राईल पहुंचा हुआ है। उसे भी वहाँ हमास की ज़्यादतियों के निशान तो ज़रूर नज़र आ रहे हैं परन्तु इस्राईली ‘ज़ायनिस्टों ‘ द्वारा किये जा रहे युद्ध अपराधों को देखने दिखाने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। सवाल यह है कि क्या यह चाटुकार गोदी मीडिया के लगभग एक दशक के दुष्प्रचार की ही देन है कि आज भारत जैसे शांति प्रिय देश में इस्राईल-हमास युद्ध के दौरान इस क़दर युद्धोन्माद का वातावरण बना हुआ है ?

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  • ‘आंख के बदले आंख’ सिद्धांत कितना प्रासंगिक

    22-Oct-2023

    ‘आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत’, यह पंक्ति बेबीलोन के राजा हाम्बुराबी (1790 ई. पूर्व) के कानून का एक अंश है। एक विशाल पत्थर के स्लैब पर अंकित हाम्बुराबी की कानून संहिता को सन् 1901 में ईरान के ‘सुसा’ शहर में खोजा गया था तथा मौजूदा वक्त में यह स्टेल पेरिस के ‘लौवर’ संग्रहालय में संरक्षित है। प्रखर राष्ट्रवाद के लिए प्रसिद्ध इजरायल की सेना अपने दुश्मनों के साथ आंख के बदले आंख के सिद्धांत पर काम करती है। लेकिन ‘आंख के बदले आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी’, यह कथन ‘महात्मा गांधी’ का है। महात्मा बुद्ध, महावीर, गुरु नानक देव जैसे महापुरुषों के आध्यात्मिक ज्ञान की विरासत, अहिंसा के मंत्र, सत्य के सिद्धांत सदियों से भारतीय सभ्यता का हिस्सा रहे हैं। मगर प्रश्न यह है कि जब पड़ोस में आतंक का तर्जुमान पाकिस्तान हो, दूसरी तरफ शातिर चीन तथा अन्य मुल्क वक्त की नजाकत को देखकर रंग बदलने में माहिर हों तथा विदेशों में शरण लेकर भारत को खंडित करने का ख्वाब देख रहे चरमपंथी संगठन मौजूद हों, तो शांति का मसीहा बनकर नैतिकता का पाठ व अहिंसा के सिद्धांतों की दुहाई देना कितना प्रासंगिक है।

    रूस-यूक्रेन की जंग व इजरायल के साथ हमास जैसे चरमपंथी संगठन के सशस्त्र संघर्ष ने विश्व को कई सबक सिखा दिए हैं। गत सात अक्तूबर 2023 को जब इजरायल की आवाम अपना ‘योम किप्पुर’ नामक पर्व मना रही थी, तब फिलिस्तीन के गाजापट्टी से संचालित होने वाले चरमपंथी संगठन ‘हमास’ ने इजरायल पर खौफनाक हमले को अंजाम देकर पूरी दुनिया को चौंका दिया। हमास ने इजरायल पर हमला करके पचास वर्ष पूर्व की उस तारीख को ताजा कर दिया जब मिस्र व सीरिया की सेनाओं ने मिलकर छह अक्तूबर 1973 को इजरायल पर योम किम्पूर पर्व के अवसर पर हमला किया था। इजरायल के वर्तमान प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू उस योम किप्पुर जंग में इजरायली सेना का हिस्सा बनकर लड़े थे। इजरायली सेना के शदीद पलटवार के बाद 26 अक्तूबर 1973 को सीजफायर का ऐलान हुआ। युद्ध के बाद मिस्र व इजरायल में मुजाकरात का दौर शुरू हुआ। एक तवील अर्से के बाद पूर्व सैन्य अधिकारी रहे मिस्र के राष्ट्रपति मुहम्मद अनवर अल सादत ने सन् 1977 में इजरायल का दौर किया। सन् 1978 में मु. अनवर अल सादत तथा इजरायली प्रधानमंत्री ‘मेनाकेम बेगिन’ के बीच मिस्र-इजरायल नामक शांति संधि हुई। लेकिन कट्टरपंथ की उल्फत में डूबे कई मुल्कों को वो शांति संधि नागवार गुजरी। आखिर छह अक्तूबर 1981 के दिन मिस्र की राजधानी काहिरा में सैन्य परेड के दौरान आतंकियों ने राष्ट्रपति मो. अनवर अल सादत को कत्ल कर दिया था। भावार्थ यह है कि मैदाने जंग में दुश्मन को धूल चटाकर हमेशा फातिम योद्धा का किरदार निभाने वाले मुल्क इजरायल के साथ युद्ध तथा शांति संधि दोनों इंतसार पैदा करते हैं। किसी भी देश पर अचानक हमला होने की स्थिति में वहां की खुफिया एजेंसियों की चूक पर सवाल उठते हैं। देश की सुरक्षा में खुफिया विभाग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
     
    इजरायल देश की आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा खुफिया एजेंसी ‘शिन बेट’ तथा देश के बाहर की कमान सन् 1949 में स्थापित ‘मोसाद’ संभालती है। जोखिम भरे मिशनों को खुफिया तरीके से अंजाम देने में माहिर मोसाद दुनिया की सर्वश्रेष्ठ खुफिया एजेंसियों में शुमार करती है। मोसाद के खुफिया सैन्य मिशनों का एक शानदार इतिहास रहा है। 27 जून 1976 को इजरायल की राजधानी तेल अवीव में फ्रांस की ऐयरबस का कुछ आतंकियों ने अपहरण करके उसे युगांडा के एंतेबे हवाई अड्डे पर उतार दिया था, जिसमें ज्यादातर इजरायली नागरिक सवार थे। चार जून 1976 को इजरायल के ‘एलिट ग्रुप’ के कमांडो ने आपरेशन ‘थंडरबोल्ट’ को अंजाम देकर एंतेबे हवाई अड्डे पर सात आतंकियों सहित युगांडा के पचास सैनिकों को भी हलाक करके उस जहाज को रिहा करा लिया था। उस कमांडो मिशन में इजरायल के वर्तमान प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बड़े भाई कर्नल ‘जोनाथन नेतन्याहु’ शहीद हो गए थे। गौर करने वाली बात है कि इजरायल का सियासी नेतृत्व करने वाले ज्यादातर सियासतदानों का सैन्य क्षेत्र का जमीनी अनुभव रहा है। लिहाजा इजरायल से प्रत्यक्ष युद्ध की हिमाकत कोई भी देश नहीं करता। इसीलिए आतंकी संगठनों की सरपरस्ती हो रही है। 14 मई 1948 को इजरायल ने खुद को एक आजाद मुल्क घोषित कर दिया था। वजूद में आने के एक दिन बाद ही अरब देशों ने इजरायल पर हमला बोल दिया था। तब यूएनओ ने मध्यस्थता करके युद्ध को शांत कर दिया था। दुश्मन देशों से घिरे इजरायल की आवाम पर अत्याचारों की एक लम्बी दास्तान है। मगर जिस प्रकार इजरायल ने खुद को हर क्षेत्र में सक्षम किया है वो एक मिसाल है। हमास के हमले से भारत की सियासी हरारत भी बढ़ चुकी है। मजहब के कई रहनुमां हैवानियत को शर्मसार करने वाले हमास के आतंकियों को इंकलाबी चेहरे बता रहे हैं।
     
     
    मजलूमों को मारने का हश्र क्या होता है, हमास की इस हरकत का अंजाम फिलिस्तीन की आवाम भुगत रही है। शहर शमशान में तब्दील हो रहे हैं। अलबत्ता मजहबी नारे लगाकर बेगुनाह लोगों का कत्ल करने वाले आतंकियों को इजरायली सेना जहन्नुम की परवाज पर भेजकर ही दम लेगी। स्मरण रहे प्रतिशोध भरा इंतकाम जुल्म से भी बद्दतर साबित होता है। लाशें रोती नहीं, मगर उन्हें सुपुर्दे खाक करने वाले चीत्कार के साथ मातम मनाते हैं। नया शहर कितना भी आबाद हो, परंतु पीछे छूटने वाले आशियाने बेचैन करते हैं। इसलिए यूएनओ को युद्ध के कहर से शरणार्थी बन रहे लोगों का दर्द समझना होगा। बहरहाल जब बात राष्ट्र के स्वाभिमान की हो तो बेगुनाहों का रक्त बहाने वाली मानसिकता पर ‘आंख के बदले आंख व दांत के बदले दांत’ के सिद्धांत को अपनाना पड़ता है, मगर आंख के बदले आंख विश्व को अंधा बना देगी, गांधी जी के इस कथन पर भी विचार होना चाहिए। फिलिस्तीन-इजरायल से भारत के बेहतर रिश्ते हैं। अत: वैश्विक शांति के लिए दहशतगर्दी की किसी भी सूरत में हिमायत नहीं होनी चाहिए।

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  • अंतरात्मा के कैदी

    15-Oct-2023

    हाल के दिनों में, ऐसे कई अवसर आए हैं जब बापू ने जो कहा वह बहुत आवश्यक और प्रासंगिक हो गया है और उन लोगों के लिए ऐसे परिणाम सामने आए हैं जिनके बारे में बापू ने चेतावनी दी थी, जिन्होंने साहसपूर्वक शासकों को बताया कि वे गलत हैं और उनकी तानाशाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम लागू करने और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर को लागू करने के सरकार के प्रयास स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण थे और, बिल्कुल सही, मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच काफी चिंता पैदा हुई। देश भर में स्वत:स्फूर्त विरोध प्रदर्शन हुए। दिल्ली में ऐतिहासिक शाहीन बाग धरना हुआ. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों ने भी विरोध प्रदर्शन शुरू किया। उनका श्रेय यह है कि विरोध अहिंसक और शांतिपूर्ण था। पुलिस और प्रशासन ने विरोध प्रदर्शन को तोड़ने के लिए हिंसक तरीकों का इस्तेमाल किया। अंततः, विरोध प्रदर्शनों को तोड़ने और प्रदर्शनकारियों पर अत्याचार करने के लिए सांप्रदायिक दंगे कराए गए। कई गिरफ़्तारियाँ की गईं; अहिंसक विरोध प्रदर्शन करने वाले और उसमें भाग लेने वाले छात्रों पर आतंकवादियों और गैंगस्टरों के खिलाफ उपयोग के लिए बनाए गए गंभीर कानूनों की मदद से आरोप लगाए गए और गिरफ्तार किए गए। इन कानूनों के तहत गिरफ्तारी और हिरासत का एक रणनीतिक उद्देश्य है: क़ानून में प्रदान किए गए कानूनी सुरक्षा उपायों को दरकिनार करना। इन विशेष कानूनों के तहत, पुलिस आरोप पत्र दाखिल करने में देरी कर सकती है और फिर भी आरोपी को हिरासत में रख सकती है। उनके मुकदमों में लगभग अनिश्चित काल तक देरी हो सकती है ताकि आरोपित और कैद किए गए लोगों को अपनी बेगुनाही साबित करने का मौका न मिले। जमानत, जो उनका अधिकार है, उन्हें अस्वीकार कर दिया गया है, जिससे यह सुनिश्चित हो गया है कि वे एक कथित अपराध के लिए कारावास की सजा भुगतेंगे। पुलिस स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार नहीं बल्कि अपने राजनीतिक आकाओं के आदेश पर काम करती है और न्याय की प्रक्रिया में देरी करने के लिए अक्सर कई तुच्छ आरोप दर्ज करती है। जब वे कोई आरोप पत्र दाखिल करते हैं, तो वे यह सुनिश्चित करते हैं कि यह हजारों पन्नों का हो, यह जानते हुए कि अदालत पूरी आरोप पत्र पढ़ने के लिए बाध्य है और इसमें बहुत अधिक समय लगता है, जिससे अन्याय बढ़ता जाता है। वे यह सब यह जानते हुए करते हैं कि जब मुकदमा अंततः शुरू होगा, तो वे अपने मनगढ़ंत आरोपों को बरकरार नहीं रख पाएंगे और उनके द्वारा दायर किए गए मामले आसानी से खारिज कर दिए जाएंगे। इसलिए उनकी रणनीति समय के लिए खेलना है और ऐसा करके युवा जीवन बर्बाद करना है। अब समय आ गया है कि हमारे पास एक ऐसा तंत्र हो जिसके द्वारा पुलिस को दंडित किया जाए और प्रशासन पर मनमाने या झूठे आरोप दायर करने पर जुर्माना लगाया जाए। उन लोगों को भी मुआवज़ा दिया जाना चाहिए जो आरोप के अनुसार दोषी नहीं पाए गए हैं।

     
     
    ऐसे कई उदाहरण हैं जब पुलिस द्वारा गंभीर आरोपों के आरोपी लोगों को अदालतों द्वारा बरी कर दिया गया क्योंकि आरोपियों के खिलाफ अभियोजन पक्ष का मामला अस्थिर पाया गया था। उनमें से कई जो अंततः निर्दोष साबित हुए, दशकों तक जेलों में बंद रहे। ऐसे ही एक पीड़ित हैं अब्दुल वाहिद शेख. उन पर 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए सिलसिलेवार विस्फोटों के लिए आतंकवादी होने का आरोप लगाया गया, आरोप लगाया गया, गिरफ्तार किया गया और जेल में डाल दिया गया। अब्दुल, एक स्कूल शिक्षक, को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया और नौ साल जेल में बिताए जब तक कि अदालत ने यह नहीं पाया कि अब्दुल निर्दोष था। हालाँकि अब्दुल को रिहा कर दिया गया, लेकिन उसका जीवन बर्बाद हो गया और उसका परिवार गरीबी में डूब गया। आज, अब्दुल जेल में बंद अन्य लोगों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रहा है।
     
    दुर्भाग्य से, हमारी कानूनी प्रणाली इतनी अधिक बोझिल और इतनी अपर्याप्त है कि मामले अदालतों में अनिश्चित काल तक लंबे समय तक चलते रहते हैं और आरोपी और जेल में बंद लोग अपने उत्पादक जीवन का अधिकांश समय जेल में बिताते हैं, कई बार मात्रा से अधिक या उससे भी अधिक समय जेल में बिताते हैं। जिस अपराध के लिए उन पर आरोप लगाया गया है, उसके लिए उन्हें कितनी सजा भुगतनी होगी। हमारी न्याय वितरण प्रणाली में इस कमी के कारण कई मुसलमानों के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी नुकसान उठाना पड़ा है। न्याय से ऐसे इनकार के कारण बहुत से लोग अकारण और अज्ञात रूप से जेल में बंद हैं।
     
    गरीब आदिवासियों के बीच काम करने वाले एक बूढ़े, कमजोर ईसाई पादरी फादर स्टेन स्वामी पर देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया और उन्हें जेल में डाल दिया गया। उनके मुकदमे में देरी हुई और उनकी बढ़ती उम्र, कमज़ोर और खराब स्वास्थ्य के बावजूद उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया गया। यहां तक कि उन्हें बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित कर दिया गया. वह जेल में सड़ते हुए मर गया।
     
    कई कार्यकर्ता जो सीएए/एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों में सबसे आगे थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है और उन पर झूठे आरोप लगाए गए हैं। उनके परीक्षणों को अनिश्चित काल तक विलंबित करने के लिए इसी तरह की रणनीति का उपयोग किया गया है। इनमें सबसे प्रमुख नाम एक रिसर्च स्कॉलर उमर खालिद का है। फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों के बाद, खालिद को गिरफ्तार किया गया था और उसके खिलाफ कई आरोप और मामले दर्ज किए गए थे। पुलिस ने उन पर दंगों का मास्टरमाइंड होने का आरोप लगाया. इस नागरिक प्रतिरोधी पर मुकदमा चलाने के लिए कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम का इस्तेमाल किया गया था। उमर खालिद, शरजील इमाम और कई अन्य लोग जेल में बंद हैं। उन्हें त्वरित सुनवाई से वंचित कर दिया गया है. खालिद और इमाम दोनों के साथ-साथ अन्य को अन्य मामलों में अदालतों द्वारा दोषमुक्त कर दिया गया है, जब मुकदमे शुरू करने की अनुमति दी गई है। यह विडम्बना है कि ‘नेताओं’, ‘संतों’ और निर्वाचित प्रतिनिधियों ने हिंसा भड़काई और नफरत फैलाई।

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  • संयम बरतें

    15-Oct-2023

    इजराइल-हमास युद्ध के बीच, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि आज दुनिया जिन संघर्षों और टकरावों का सामना कर रही है, उससे किसी को फायदा नहीं होता है। पी20 शिखर सम्मेलन में उन्होंने कहा, ‘यह शांति और भाईचारे का समय है… और एक साथ आगे बढ़ने का समय है;’ यह वस्तुतः पिछले साल रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को दी गई उनकी सलाह की पुनरावृत्ति है – ‘अब युद्ध का समय नहीं है’। विडंबना यह है कि, इजरायली रक्षा मंत्री योव गैलेंट ने ठीक इसके विपरीत कहा – ‘अब युद्ध का समय है’ – गुरुवार को जब इजरायली युद्धक विमानों ने हमास आतंकवादियों द्वारा सप्ताहांत में किए गए घातक हमलों के प्रतिशोध में गाजा पर बमबारी जारी रखी।

     
     
    युद्ध, जिसने एक सप्ताह के भीतर हजारों लोगों की जान ले ली है, एक महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश करने के लिए तैयार है क्योंकि इजरायली सेना ने उत्तरी गाजा में रहने वाले लगभग दस लाख फिलिस्तीनियों को ‘अपनी सुरक्षा और संरक्षण के लिए’ खाली करने का आदेश दिया है। गाजा के हमास शासकों ने फिलिस्तीनियों से आग्रह किया है कि वे ‘अपने घरों में स्थिर रहें और इजरायल के खिलाफ मजबूती से खड़े रहें’, जबकि संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि लोगों का इतना बड़ा आंदोलन विनाशकारी परिणामों के बिना नहीं हो सकता है। भोजन और ईंधन से वंचित दुर्भाग्यशाली निवासी, प्रतिशोधी आक्रमणकारियों और भूमध्य सागर के बीच फंस गए हैं।
     
    इजराइल, जिसने हमास पर करारा पलटवार किया है, को अब संयम बरतने की जरूरत है, जैसा कि उसके करीबी सहयोगी अमेरिका ने सुझाव दिया है। उत्तरार्द्ध, जिसका पश्चिम एशिया में बड़ा दांव है, ने तेल अवीव के पीछे अपना वजन डाला है लेकिन वह नहीं चाहता कि संघर्ष पूरे क्षेत्र में फैल जाए। नागरिक हताहतों को कम करने और गाजा निवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है। लंबे समय तक चले रूस-यूक्रेन युद्ध ने पहले ही वैश्विक उथल-पुथल मचा दी है, जिससे खाद्य और ऊर्जा आपूर्ति बाधित हो गई है; समान परिमाण का एक और युद्ध बड़े पैमाने पर दुनिया के लिए विनाशकारी होगा।

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  • खोह में जाती जिंदगियां

    29-Jun-2020

     पिछले सप्ताह अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से जारी ‘ट्रैफिकिंग इन पर्संस’ रिपोर्ट-2020 भारत में मानव तस्करी को लेकर कुछ अहम तथ्यों की ओर ध्यान खींचती है। रेटिंग के हिसाब से देखा जाए तो भारत को पिछले साल की तरह इस बार भी टियर-2 श्रेणी में ही रखा गया है। आधार यह कि सरकार ने 2019 में इस बुराई को मिटाने की अपनी तरफ से कोशिश जरूर की लेकिन मानव तस्करी रोकने से जुड़े न्यूनतम मानक फिर भी हासिल नहीं किए जा सके।

    ध्यान रहे, सरकारी कोशिशों के इसी पैमाने पर रिपोर्ट ने पाकिस्तान को पहले से एक दर्जा नीचे लाते हुए टियर-2 वॉच लिस्ट में रखा है, जबकि चीन को और भी नीचे टियर-3 में। रिपोर्ट के मुताबिक चीन की सरकार अपनी तरफ से इस समस्या को खत्म करने की कोशिश भी नहीं कर रही। बहरहाल, भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि यह आज भी वर्ल्ड ह्यूमन ट्रैफिकिंग के नक्शे पर एक अहम ठिकाना बना हुआ है। इसके उलट अगर हम नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो स्थिति लगातार बेहतर होती दिख रही है। 

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